गुरुवार, 27 मई 2010

आज का नौजवान

समझता है वह खुद को फलसफी अपने ज़माने का,
यही मकसद है शायद आजकल दाढ़ी बढ़ाने का।

नक़ल फ़िल्मी अदाकारों की वो फैशन समझता है,
वह तहजीब की बातो को पिछड़ापन समझता है।

जिया करता है नशे में दिल को बहला कर,
गुजरती हैं दिन उसके लोगों को उल्लू बनाकर।

बोली-भाषा-हुनर और ज्ञान में जीरो ही जीरो है,
वह बरातों में पीकर नाच सकता है तो हीरो है।

कभी शिक्षक को मारा, कभी हड़ताल करवा दी,
उसे हर रोज़ मिलनी चाहिए पढने से आज़ादी।

हो जाये झगडा खलासी से तो बस जला डाली,
खता माली की थी बुनियाद गुलशन की मिटा डाली।

यह हसरत है की रोज किसी से जंग हो जाये,
हमे पढना नहीं, औरों को क्यों पढने दिया जाये।

लड़े हक के लिए इसके सिवा रास्ता क्या है,
हमारा फ़र्ज़ क्या है इससे हमको वास्ता क्या है।

हमारे साथ जो हड़ताल में शामिल नहीं होगा,
सलामत लौट पाए घर को इस काबिल नहीं होगा।

नक़ल को क्यों नहीं इम्तिहान में आबाद किया जाये,
किताबे पढ़ के किस लिए सेहत बर्बाद की जाये।

नक़ल करने से हमके क्या रोकेगा कोई साला,
खुला रखा है जब टेबल पे कट्टा व चाकू रामपुर वाला।

यही चाकू हमारे ज़िन्दगी का रहनुमा होगा,
इसी की नोक पर हर नौकरी का दर खुला होगा।

क्या बच गयी है और भी कुछ इस वक़्त की बाते,
तो फिर चाँद लाइने और लिख के कहेंगे,
आज के युवा की हैं ये सब करामातें.....

सिगरेट : तू ही सच्चा हमसफ़र

गमे दौराँ में जब हमदम ना कोई काम आया,
मेरे मायूस लब पर उस समय तेरा नाम आया,
मेरे हर हमसफ़र ने साथ जब मझधार में छोड़ा,
यही सिगरेट है जिसने नहीं मेरा दिल तोडा।।

अभी भी गम है हजारों मेरी राहो में,
चला आया हूँ पर भाग कर इसकी पनाहों में,
जहाँ तक साथ भी मेरे अपने दे नहीं पाए,
वहां तक पहुचे है इसके छल्लो के सुर्खरू साये।।

यह मेरे साथ है तो रंज मुझसे दूर रहता है,
मेरे तमाम रातो में इसी का नूर रहता है,
ये खुद जल के देती है चमक मेरे अरमानो को,
सुकून देती है जला के , गम के ठिकानो को।।

माना की ये मेरे जीवन को यकीनी से इत्तेफाक करती है,
क्या हुआ की ये दिल जिगर को जला के ख़ाक करती है,
हम तो वैसे भी यहाँ अकेलेपन में मरते हैं,
इसके आने से वो सूनापन तो मिटता है...
हम पल-पल सुलगते हैं, वो धीरे-धीरे से बुझता है।।।।

शनिवार, 22 मई 2010

कुछ अपने कर्त्तव्य

बचपन की रवानी के दिन और होते हैं ,
हमारी हर सिसक पे दौड़ते हज़ारो पैर होते हैं ,
न वो बचपन रहा , ना वो पाँव ही हैं दिखते ,
की हम अपने आसुओं के लिए भी बाज़ार से रुमाल खरीदते …

ऐसा नहीं है की अपनों ने भुला दिया है हमे ,
पर पेट की आग ने धुप में दौड़ा दिया है हमे ,
करना तो था ही हमे ये काम भी यारा ,
कल तलक जो खिलाते थे हमे , उनका आज बनाना है सहारा …

सोच अब भी यही की कैसे करे उनकी आसन ज़िन्दगी ,
पर दौड़ भाग के बीच कहीं छूट जाती उनकी बंदगी ,
माता-पिता से प्यार का सागर लिया है हमने ,
अब सन्मान का दरिया भी बहाना है हमने …

कोई कहता है हमसे की चल चले दूर देश में ,
पर माँ-बाप की वो डांट-दुलार याद आती हर भेष में ,
कैसे उन्हें हम छोड़ दे जिसकी दुनिया ही हममे सिमट चुकी ,
अब तो जीना भी यही है मरना भी यही ,
की अब उनकी मार-दुलार ही हमारी आदत है बन चुकी ॥

Pages