जज्बा और जुनून हो तो इंसान लाख
कमियों के बावजूद अपनी मंजिल को पा ही लेता है फिर चाहे शरीर साथ दे या ना दे। ऐसे
में व्यक्ति अपने हौसलों को ही अपने पंख के तौर पर इस्तेमाल कर अपनी उड़ान को पूरा
करने की क्षमता रखता है। चाहे कला के क्षेत्र की बात हो या फिर जीवन यापन के लिए
नौकरी करने की। हौंसला हर घड़ी इंसान को अपनी पहुँच से ऊपर तक मेहनत करने को
प्रोत्साहित करता है, जो वास्तविकता में कार्य परिणीत भी होती है। ऐसे में जब खेल
की बात आती है तो लोग अक्सर सोचने लगते हैं कि शारीरिक अक्षमता के लोग कैसे खुद को
पहचान दिया पायेंगे, लेकिन आज खेलों में भी अपने दृढ़ निश्चय के बल पर शारीरिक
अक्षमता को मात देते हुए कईयों ने अपनी अलग पहचान बना ली है।
विकलांग क्रिकेट - देश
में क्रिकेट की लोकप्रियता इतनी है कि बच्चों-बूढ़ों से लेकर शारीरिक अक्षम लोग भी
इसके रंग में रंग जाने को तैयार रहते हैं। लोगों का इसके प्रति लगाव ही एकमात्र
कारण है कि आज इस खेल का एक अन्य रुप विकलांग क्रिकेट भी सामने आ गया है। ऐसे में
पैरालंपिक कमेटी आफ इंडिया कई टूर्नामेंट का आयोजन कर विकलांग खिलाड़ियों को नया
मंच देता है।
खेल चाहे जो भी हो पर एक बात तो
साफ है कि पैसे और शोहरत की कमी इसमें नहीं है। तभी तो बहुतेरे लोग इसे अपना
प्रोफेशन बनाने में लगे हैं। इसमें शारीरिक सक्षम लोगों को तो लम्बी फौज है, पर एक
वर्ग ऐसा भी है जो खेल को केवल जुनून और जीवन की कठिनाईयों से न हारने की जिद के
आधार पर इसे अपना रहा है। इस वर्ग का विशेषण यह है कि शरीर के साथ नहीं देने के
बावजूद उनका जज्बा ही उन्हें लगातार आगे बढ़ने का हौसला देते हैं। इन्हीं हौसलों
के जरिए ही आज दुनिया भर में कई ऐसे खेल अस्तीत्व में आ गये हैं जिनकी कल्पना भी
नहीं की जा सकती थी। मसलन जिसके पैर साथ ना देते हो वह व्यक्ति भला कभी बास्केट
बाल खेल सकता है, या फिर जिसने दुनिया के विभिन्न रंगों को देखा न हो वह टेनिस के
खेल में बेहतरीन शॉट या निशानेबाजी में लक्ष्य पर सटिक निशाना लगा सकता है। ऐसे और
कई सवाल हैं जो दिमाग में उलझन पैदा करते हैं लेकिन अब यह सब सच हो गया है। तकनीक
के कमाल और खिलाड़ियों के कभी हार न मानने के जज्बे ने सब कुछ कर दिखाया है।
खेल और उसके खिलाड़ी :-
पैरा बैडमिंटन- कहते
हैं मंजिलें उन्हीं को मिलती हैं जिनके सपनों में जान होती है, पंख से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है..। ये
पंक्तियां अबोहर के नजदीकी गांव खुइयां सरवर के बैंडमिंटन खिलाड़ी संजीव
कुमार पर पूरी फिट बैठती हैं। संजीव ने विकलांगता को मात देते हुए अपनी काबिलियत
से यह सिद्ध कर दिया है कि अगर इरादे मजबूत हों तो कुछ भी असंभव नहीं है।
संजीव कुमार ने दूसरी फ्रेंच
ओपन इंटरनेशनल पैरा बैडमिंटन (विकलांग) 2012 मुकाबले में कांस्य पदक जीत कर
विकलांगता को मात दी है। प्रतियोगिता फ्रांस के रोडीज में 6 से 9 अप्रैल को हुई थी, जिसमें 13 टीमों ने अपने जौहर दिखाए थे। गौरतलब हो कि इससे पहले भी संजीव
बैडमिंटन में कई पुरस्कार जीत कर अपना नाम रोशन कर चुका है। प्रतियोगिता में यह
खिलाड़ी ट्राईसाइकिल पर बैठकर ही खेलता है।
विकलांगों की कुश्ती डॉगलैग्स:-
शरीरिक तौर पर विकलांग होना लोगों को खेलों से दूर नहीं कर सकता।
फिर चाहे खेल कुश्ती ही क्यों न हो। जापान का ‘डॉगलैग्स रेस्लिंग’ ग्रुप ऐसी ही एक संस्था है जो
अपाहिज लोगों को कुश्ती लड़ने का मौका देती है। फिर भी बहुत से लोग इस लड़ाई को
नकली मानते हैं, जबकि अन्य खेलों की तुलना में डॉगलैग्स को ज्यादा मनोरंजक बनाया
गया है।
डॉगलैग्स खेल के संस्थापकों में
से एक यूकिनोरी किटाजिमा कहते हैं कि दर्शकों का मनोरंजन करने वाला कोई भी शख्स
पहलवान बन सकता है। डॉगलैग्स के एक मशहूर पहलवान ‘ईटी’ का वे उदाहरण देते हैं कि वे किस तरह चेहरे पर
भाव भी प्रकट करते हैं। इन शारीरिक अक्षम खिलाड़ियों के नाम भी हार्ड रॉक, नो सिंपैथी और वेलफेयर पॉवर जैसे रोमांचक होते हैं, ताकि कहीं से भी
उन्हें यह न लगे की उन्हें केवल सहानुभूति के तौर पर पसंद किया जाता है।
व्हीलचेयर बास्केटबॉल- इस
खेल की कल्पना द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अस्तीत्व में आयी थी। जब युद्ध के
विकलांग दिग्गजों द्वारा रचित व्हीलचेयर बास्केटबॉल का खेल शुरु हुआ। इसमें
शारीरिक रूप से विकलांग लोगों के लिए विशेष रूप से डिज़ाइन की गई व्हीलचेयर पर
बास्केटबॉल खेला जाता है। दुनिया में व्हीलचेयर बास्केटबॉल का शासी निकाय
अंतर्राष्ट्रीय व्हीलचेयर बास्केटबॉल फ़ेडरेशन (आईजब्ल्यूबीएफ) है। अभी तक दुनिया
में कोई बड़ा नाम इस खेल के प्रति ज्यादा आकर्षित नहीं हुआ और ना ही इस खेल को कोई
पब्लिसिटी मिली है। लेकिन इतना जरुर हुआ है कि इस खेल को पसंद करने वाले खिलाड़ी
व्हीलचेयर पर बैठकर ही सही खेल का लुफ्त केवल देखकर नहीं खेल कर भी लेने में सक्षम
हो गये हैं।
ब्लाइंड टेनिस- इंसान
की कल्पनायें दुनिया की मौजूद वस्तुओं-सुविधाओं से परे चीजे करने को उत्साहित करती
है। इसी का नतीजा है कि नेत्रहीन लोगों के लिए ‘ब्लाइंड टेनिस’ जैसे खेल का आविष्कार हो सका। इस खेल
की खोज का श्रेय जापान के मियोशी टाकी को जाता है, जो खुद नेत्रहीन हैं और बचपन से
ही टेनिस के प्रति लगाव ने उन्हें आविष्कारक बना दिया।
शुरुआत में उनका एक ही मकसद था, हवा में तैरती बॉल को ज्यादा से ज्यादा ताकत से मारना। काफी प्रैक्टिस के
बाद वे इसमें माहिर हो गए। फिर उन्होंने एक अलग तरह की नरम बॉल खोजी। इस बॉल में
आवाज भी होती है, जिसकी स्थिति का अंदाज लगाकर नेत्रहीन
व्यक्ति उसे शॉट मार सकता है।
मियोशी की मेहनत रंग लाई और
1990 में जापान में पहली नेशनल ब्लाइंड टेनिस चैंपियनशिप आयोजित की गई। आज देश के
हर हिस्से में सैकड़ों नेत्रहीन लोग ब्लाइंड टेनिस खेलते हैं। जापान के अलावा ये
खेल चीन, कोरिया, ताईवान, ब्रिटेन और अमेरिका में भी पहुंच गया है। भारत मे यह खेल अभी शैशव अवस्था
में है और केवल हैदराबाद में एक संस्थान में इसका प्रशिक्षण कार्य होता है।

हाल ही में कर्नाटक में आयोजित
गंधर्व ट्राफी 2012 में कई राज्यों के खिलाड़ियों ने अपनी प्रतिभा दिखाई। उन्हीं
प्रतिभावान खिलाड़ियों में एक मोहन ठाकुर भी है, जो स्नातक तृतीय वर्ष का
विद्यार्थी है। पटना के विकलांग खेल अकादमी का यह हुनरमंद खिलाड़ी शारीरिक अक्षमता
के साथ आर्थिक तंगी का भी शिकार है। पर इसने अपने जज्बे और जुनून से साबित कर दिया
कि अगर कुछ करने की ठानी जाये तो मंजिल मिल ही जाती है। इस खिलाड़ी ने कर्नाटक के
हुबली शहर में राष्ट्रीय स्तर के पैरालंपिक प्रतियोगिता में बिहार टीम की ओर से
भाग लिया और आठ राज्यों की टीमों के बीच तीसरा स्थान हासिल किया।
इसके अलावा, पटना में आयोजित
बारहवीं बिहार राज्य पारालंपिक एथेलेटिक्स चैंपियनशिप के डिस्कस थ्रो में द्वितीय
स्थान भी ग्रहण किया तथा पन्द्रह सौ मीटर दौड़ में तृतीय स्थान भी प्राप्त किया है।
अपनी प्रतिभा के बल पर ही मोहन ने राष्ट्रीय स्तर पर परचम लहराया है। अब बस उसे
सरकार से आर्थिक मदद की दरकार है जो उसकी मेहनत को और आगे ले जाने में मददगार हो
सके।
विकलांग ओलम्पिक खेल- शारीरिक
अक्षम लोगों के लिए खेल का परिक्षेत्र यहीं नहीं रुकता बल्कि दिन-प्रतिदिन नयी-नयी
कड़ियां जुड़ती जा रही हैं। अब तो ओलम्पिक खेलों में भी विकलांग खिलाड़ियों को
अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिलने लगा है। इस साल लंदन में होने जा रहे विकलांग
ओलम्पिक खेलों में उत्तरी कोरिया का खेलदल भी हिस्सेदारी करेगा। इससे पहले उत्तरी
कोरिया ने विकलांग ओलम्पिक खेलों में कभी भाग नहीं लिया था।
लंदन ओलम्पिक कमेटी ने इस बाबत
साफ कर दिया है कि उत्तरी कोरिया के विकलांग एथलीटों का एक दल पेइचिंग पहुँच गया
है। उत्तरी कोरिया के खिलाड़ियों को यहाँ बने एक शिविर में चीन के विकलांग
खिलाड़ियों के साथ ट्रेनिंग दी जाएगी। वे तैराकी, टेबल-टेनिस और एथलेटिक्स खेलों में हिस्सा लेगें। लंदन में 29 अगस्त से 9
सितम्बर तक चलने वाले विकलांग ओलम्पिक खेलों के लिए सात भारतीय खिलाड़ियों ने भी
अपनी सीट बुक करा ली है।
लंदन ओलम्पिक की पैरा-ओलम्पिक
स्पर्धाओं के लिये क्वालिफाई करने वाले हरियाणा के सात विकलांग खिलाड़ियों ने हर
प्रतियोगिता के लिए खुद को तैयार बताया है। उन्होंने कहा कि उनका प्रयास है कि जब
वो लंदन तक पहुँचे हैं तो आगे भी जायेंगे। इन सात खिलाड़ियों में अमित
सरोहा-डिस्कस थ्रो, ज्ञानेन्द्र सिंह घनघस-लाँग जम्प, जयदीप सिंह-डिस्कस थ्रो, अमित कुमार-लांग जम्प,
जगमेन्द्र-डिस्कस थ्रो, नरेन्द्र-जैवलिन थ्रो
और विजय कुमार-जैवलिन थ्रो शामिल हैं।
छोटे कस्बों की अन्तरराष्ट्रीय
प्रतिभाएं- वर्तमान विकलांग प्रतिभाओं से परे कुछ
होनहार ऐसे भी हैं जो भविष्य में देश के मान को बढ़ाने की तैयारियों में जुटे पड़े
हैं। इनमें एक हैं खेकड़ा कस्बे के अंकुर, जो नेत्रहीन है पर गजब का एथलीट भी है।
अपने देश की प्रतियोगिताओं को छोड़िए उसने अमेरिका में हुई नेत्रहीनों की विश्व
युवा खेलकूद प्रतियोगिता में विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए दो सोने के पदक जीते हैं।
उसका कहना है कि वह नेत्रहीन हुआ तो क्या वह देश का नाम रोशन करना चाहता है और
इसके लिए वह मेहनत कर रहा है। बकौल अंकुर, अभी तो मैं सीखने के क्रम में हूँ, पर
मेरा ख्वाहिश अपनी सच्ची लगन से देश का गौरव बढ़ाना है।
इसी तरह, बड़ौत नगर की सोनिया
पैरों से विकलांग है, लेकिन वह अच्छी निशानेबाज
है और आजकल जौहड़ी गांव में भारतीय खेल प्राधिकरण के केंद्र पर प्रशिक्षण ले रही
है। उसके पास एयर पिस्टल भी नहीं है लेकिन उधार की पिस्टल से प्रशिक्षण लेकर राज्य
स्तरीय प्रतियोगिता तक पहुंच गई है। उसका कहना है कि वह विकलांग है और हथियार भी
उसके पास नहीं है लेकिन अपनी मेहनत के बल पर वह विदेशों तक में नाम रोशन करेगी।
ऐसे ही खेड़की गांव का रहने वाला आकाश भी विकलांग है। वह शाहमल रायफल क्लब बड़ौत पर
निशानेबाजी का अभ्यास करता है। उसने स्टेट व नेशनल स्तर पर आठ पदक जीते हैं। पिछले
साल उसका चयन जर्मनी में होने वाले वर्ल्ड कप के लिए हो गया था, लेकिन पासपोर्ट न बन पाने के कारण वह वह नहीं जा सका था। अब वह पूना में
होने वाली मास्टर मीट शूटिंग चैंपियनशिप में भाग लेने की तैयारी कर रहा है।
कहते हैं कि कुछ कर गुजरने का
जज्बा हो तो मंजिलें झुककर सलाम करती है। देश और दुनिया के इन शारीरिक अक्षम
इंसानों ने भी अपने जज्बे से अपनी मंजिल को अपने सामने झुका दिया है। बहरहाल, जिस तरह मुफलिसी और मायूसी के अंधेरों से निकलकर इस विकलांग खिलाड़ियों ने
अपने हौसलों से खुद का आसमान तैयार किया है। जिस तरह इन खिलाड़ियों ने अपनी गरीबी
और अक्षमताओं को पीछे ढ़केल दिया है, वह आने वाली पीढ़ी को अपने जज्बों और हौसलों
पर भरोसा करने का पाठ साबित होगा। अब वह दिन दूर नहीं जब आर्थिक और शारीरिक रूप से
कमजोर बच्चे समझदार होते ही स्टेडियमों का रुख खुद कर लिया करेंगे। उनके लिए बस एक
ही बात मायने रखेगी कि हौसला और हिम्मत हो तो विकलांगता तरक्की में आड़े नहीं आती।
शारीरिक अक्षम पर हुनरमंद खिलाड़ियों ने साबित कर दिया है कि आगे बढ़ने का जोश और
जुनून अगर दिल में जगह बना ले तो इंसानी जज्बा हर कामयाबी को अपनी झोली में डाल
लेता है।
--आकाश कुमार राय
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