शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

लब खोलोगे , तो दिल तोड़ोगे ….

हम अक्सर कुछ ऐसी बाते कहते और सुनते हैं जो हमे तो अच्छी लगती हैं पर सामने वाला इसे पसंद नहीं करता । ये तो पता था की किसी एक बात से सबको खुश नहीं रखा जा सकता , पर ये नहीं जानता था की आपकी कही एक बात किसी को दुःख भी पंहुचा सकती है । आज मैंने इस बात को भी समझ लिया की आप कुछ कहने से पहले सौ बार सोचिये की कहीं इससे कोई दुखी तो नहीं होगा । यहाँ बात कहने से तात्पर्य ये नहीं की आप किसी की बुराई या खामिया छाट रहे हैं बल्कि किससे ये बात करे इसका भी ध्यान देना जरुरी होता है ।

आज मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ , एक महोदय से अपने कॉमन फ्रेंड के बारे में बात की जो किसी प्रकार से उसे पता चली … खैर इसमें कोई गलत बात नहीं थी क्योंकि मै खुद उससे इस बारे में बात करने को था । मै उसे बताना चाहता था की अमुक व्यक्ति से मेरी बात हुई , पर अमुक व्यक्ति मुझसे तेज़ निकला और एक प्रकार से मेरी कही हर अच्छी-बुरी बात को उसके सामने ऐसे रखा की मै ही दोषी हो गया । अब उस मित्र को ऐसा लगता है की मैंने उसकी बुराई उसके पीठ पीछे किसी और से की है । पर ये तो मै ही जनता हूँ मैंने क्या और क्यों कहा । इन बातो के पीछे मेरी क्या मनसा थी । पर मै गलत साबित हुआ और अब मै खुद अपनी नजरो में दोषी लग रहा हूँ की चाहे जो हुआ पर मुझे किसी की बात उसकी अनुपस्थिति में किसी अन्य के सामने नहीं करनी चाहिए थी ।

अपनी गलती की माफ़ी तो मैंने आज उस दोस्त से मांग ली , साथ ही एक वायदा भी कर आया की अब उससे जुडी किसी बात को उसे छोड़ किसी से नहीं करूँगा । पर दिल को जाने क्यों ऐसा लग रहा है की अब किसी से बात नहीं करनी चाहिए, कम से कम अगले कुछ दिनों तक तो नहीं ही। शायद पहली बार इस तरह से अपना ही मजाक उड़ते मैंने पाया है कि अब हर किसी से रूठ जाने को दिल करता है । बस मै और मेरी तन्हाई ना कोई बात ना किसी की रुसवाई ….....॥

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

सवाल यही : कौन गलत, कौन सही

अपराध और राजनीती एक दुसरे के पर्याय बनते जा रहे हैंहर बार चुनाव से पहले एक सवाल उठता है की दागी छवि वाले नेताओ को टिकेट ना दिया जाये, लेकिन अगर बेदाग छवि वाले नेताओ को ढूँढना ही टेढ़ी खीर हो जाये तो? भारतीय राजनीती में हर स्तरपर ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके रसूख का जायजा उनके हथियारों के की तादाद से लिया जाता है। 'ओंकारा' तथा 'सत्या' जैसी फिल्मो के नायक ही बाहुबली थे और इससे अंदाजा लगाया जा सकता है की नेताओ की बाहुबली वाली छवि को भारतीय जनमानस ने पुरो तरह अपना लिया है

कैसी विडम्बना है की गुंडों, लोफरो और बदमाशो को अब 'बाहुबली' जैसे सशक्त शब्द की पारी सीमा में गढ़ दिया गया हैजो लोगो को उनके प्रति घृणा की जगह सम्मान और उनके बढ़ते रसूख को बढ़ावा देता हैऐसे में एक सवाल उठता है की क्या वाकई भारतीय राजनीती में ये बाहुबली अपनी लिए खास मुकाम बना चुके हैं? क्या आज बाहुबली होना शर्म की नहीं गर्व की बात बन गयी है? क्या नैतिकता के लिए अब कोई जगह नहीं बची?

हमारे सामने सवाल मुश्किल हैअगर उद्योगपति अपनी अकूत दौलत की बदौलत, कोई अपराधी अपने बहुबल की तर्ज पर और कोई पत्रकार-लेखक अपनी कलम बेचकर संसद या विधानसभाओ में 'जनप्रतिनिधि' का दर्जा पाने की कोशिश करता है तो इनमे से किसे अलग और एक आदर्श के तौर पर देखा जाये???

Pages