अपराध और राजनीती एक दुसरे के पर्याय बनते जा रहे हैं। हर बार चुनाव से पहले एक सवाल उठता है की दागी छवि वाले नेताओ को टिकेट ना दिया जाये, लेकिन अगर बेदाग छवि वाले नेताओ को ढूँढना ही टेढ़ी खीर हो जाये तो? भारतीय राजनीती में हर स्तरपर ऐसे लोग मौजूद हैं जिनके रसूख का जायजा उनके हथियारों के की तादाद से लिया जाता है। 'ओंकारा' तथा 'सत्या' जैसी फिल्मो के नायक ही बाहुबली थे और इससे अंदाजा लगाया जा सकता है की नेताओ की बाहुबली वाली छवि को भारतीय जनमानस ने पुरो तरह अपना लिया है।
कैसी विडम्बना है की गुंडों, लोफरो और बदमाशो को अब 'बाहुबली' जैसे सशक्त शब्द की पारी सीमा में गढ़ दिया गया है। जो लोगो को उनके प्रति घृणा की जगह सम्मान और उनके बढ़ते रसूख को बढ़ावा देता है। ऐसे में एक सवाल उठता है की क्या वाकई भारतीय राजनीती में ये बाहुबली अपनी लिए खास मुकाम बना चुके हैं? क्या आज बाहुबली होना शर्म की नहीं गर्व की बात बन गयी है? क्या नैतिकता के लिए अब कोई जगह नहीं बची?
हमारे सामने सवाल मुश्किल है। अगर उद्योगपति अपनी अकूत दौलत की बदौलत, कोई अपराधी अपने बहुबल की तर्ज पर और कोई पत्रकार-लेखक अपनी कलम बेचकर संसद या विधानसभाओ में 'जनप्रतिनिधि' का दर्जा पाने की कोशिश करता है तो इनमे से किसे अलग और एक आदर्श के तौर पर देखा जाये???
कैसी विडम्बना है की गुंडों, लोफरो और बदमाशो को अब 'बाहुबली' जैसे सशक्त शब्द की पारी सीमा में गढ़ दिया गया है। जो लोगो को उनके प्रति घृणा की जगह सम्मान और उनके बढ़ते रसूख को बढ़ावा देता है। ऐसे में एक सवाल उठता है की क्या वाकई भारतीय राजनीती में ये बाहुबली अपनी लिए खास मुकाम बना चुके हैं? क्या आज बाहुबली होना शर्म की नहीं गर्व की बात बन गयी है? क्या नैतिकता के लिए अब कोई जगह नहीं बची?
हमारे सामने सवाल मुश्किल है। अगर उद्योगपति अपनी अकूत दौलत की बदौलत, कोई अपराधी अपने बहुबल की तर्ज पर और कोई पत्रकार-लेखक अपनी कलम बेचकर संसद या विधानसभाओ में 'जनप्रतिनिधि' का दर्जा पाने की कोशिश करता है तो इनमे से किसे अलग और एक आदर्श के तौर पर देखा जाये???
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें