शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

क्यों नहीं...


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ज़माने के अंदाज़ में ढ़लता क्यों नहीं,
मैं वक़्त के साथ बदलता क्यों नहीं।
 बच्चों सा मासूम क्यों घूमता हूँ आज भी,
तजुर्बे की आंच में जलता क्यों नहीं।
पीले ही नहीं पड़ते मेरे चाहतों के पन्ने,
मेरे दोस्तों का नाम बदलता क्यों नहीं।
राहों में मिलने वाले बन जाते हैं राहबर,
मैं अकेले कभी सफर पे निकलता क्यों नहीं।
हस भी नहीं पाते जिन चुटकुलों पे और सब,
हस-हस के उनपे मेरा दम निकलता क्यों नहीं।
निकल पड़ता हूँ करके इरादा पक्का,
नाकामियों पे भी हाथ मैं मलता क्यों नहीं।
ना जाने क्यों ऐसा बनाया है खुदा ने मुझे,
इस खुदगर्ज दुनिया में क्यों सजाया है मुझे।
 शायद उसे भी पुरानी चीजों से लगाव है,
शायद यही वजह की मेरा ऐसा स्वभाव है।
काले बादलों में सुनहरे उजाले नज़र आते हैं,
इस दौर में भी मुझे लोग प्यारे नज़र आते हैं।
ना जाने ज़माने से क्यो इतना जुदा हूँ मैं,
लगता है की नए शहर में गुमशुदा हूँ मैं।
मैं वो गीत हूँ जो अब कोई सुनता नहीं,
हकीक़त के हादसों में सपना कोई बुनता नहीं।
फिर मैं ही क्यों वक़्त के साथ बदलता नहीं।
क्यों मैं ज़माने के अंदाज में ढ़लता नहीं..।

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