शनिवार, 22 मई 2010

कुछ अपने कर्त्तव्य

बचपन की रवानी के दिन और होते हैं ,
हमारी हर सिसक पे दौड़ते हज़ारो पैर होते हैं ,
न वो बचपन रहा , ना वो पाँव ही हैं दिखते ,
की हम अपने आसुओं के लिए भी बाज़ार से रुमाल खरीदते …

ऐसा नहीं है की अपनों ने भुला दिया है हमे ,
पर पेट की आग ने धुप में दौड़ा दिया है हमे ,
करना तो था ही हमे ये काम भी यारा ,
कल तलक जो खिलाते थे हमे , उनका आज बनाना है सहारा …

सोच अब भी यही की कैसे करे उनकी आसन ज़िन्दगी ,
पर दौड़ भाग के बीच कहीं छूट जाती उनकी बंदगी ,
माता-पिता से प्यार का सागर लिया है हमने ,
अब सन्मान का दरिया भी बहाना है हमने …

कोई कहता है हमसे की चल चले दूर देश में ,
पर माँ-बाप की वो डांट-दुलार याद आती हर भेष में ,
कैसे उन्हें हम छोड़ दे जिसकी दुनिया ही हममे सिमट चुकी ,
अब तो जीना भी यही है मरना भी यही ,
की अब उनकी मार-दुलार ही हमारी आदत है बन चुकी ॥

1 टिप्पणी:

  1. वक्त के पन्ने पलटकर
    फ़िर वो हसीं लम्हे जीने को दिल चाहता है
    कभी मुशाकराते थे सभी दोस्त मिलकर
    अब उन्हें साथ देखने को दिल तरस जाता है

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