सोमवार, 17 अक्तूबर 2011

बदलते परिवेश में बदलती पत्रकारिता

कल देश गुलाम था पत्रकार आजाद, लेकिन आजदेश आजाद है और पत्रकार गुलाम। देश में गुलामी जब कानून था तो पत्रकारिता की शुरुआत करलोगों के अंदर क्रांति को पैदा करने का काम हुआ। आज जब हमारा देश आजाद है तो हमारे शब्द गुलाम हो गए हैं। कल जब एक पत्रकार लिखने बैठता था तो कलम रुकती ही नहीं थी, लेकिन आज पत्रकार लिखते-लिखते स्वयं रुक जाता है, क्योंकि जितना डर पत्रकारों को बीते समय में परायों से नहीं था, उससे ज्यादा भय आज अपनों से है।

गुलाम देश में अंग्रेजों का शासन था; तब कागज-कलम के जरिए कलम के सिपाही लोगों को यहबताने को आजाद थे कि गुलामी क्या है और लोग इससे किस प्रकार छुटकारा पा सकेंगे। पर आजअगर सरकार या व्यवस्था से कोई परेशानी है तो उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा पाता और कोशिश करने पर निजी जरूरतों का आगे कर कलम की ताकत को खरीदने की कोशिश की जा रही है। बीते समय पत्रकारिता के प्रति लोग शौक से जुड़ते थे लेकिन आज यह शौक जरूरत का रूपले चुकी है और व्यवसाय की परिपाटी का फलीभूत कर रही है। आज एक जुनूनी पत्रकार जब किसीखबर को उकेरता है तो वह खबर उच्च अधिकारियों व अन्य के पास से गुजरते हुए समय के बीततेक्रम में मरती जाती है या फिर लाभ प्राप्ति की मंशा के नीचे दब जाती है। ऐसे में जुनून के साथअपने कार्य को निभाने वाला पत्रकार भी मेहनत पर पानी फिरता देख, केवल खबर बनाने काकोरम पूरा कर पैसा कमाने में जुट जाता है।

पत्रकारिता के इस बदलते स्वरूप का जिम्मेदार केवल पत्रकार का स्वभाव और उसकी जरूरतें हीनहीं है वरन्‌ इसका असली जिम्मेदार हमारा आज का पाठक वर्ग भी है। जो इस बदलते परिवेशके साथ इतना बदल गया है की उसने समाचार पत्र और पत्रकारों के शब्दों को एक कलमकार कीभावनाओं से अलग कर दिया है। इसी का नतीजा है कि आज पत्रकार अपनी मर्जी से कुछ भी नहींलिख सकता है क्योंकि वह अपने पाठक का गुलाम होता है और उसे वही लिखना पड़ता है जोउसका पाठक चाहता है। इससे अलग अगर कोई पत्रकार अपनी जीवटता दिखाते हुए खबर सेतथ्यों को उजागर करने का मन बनाता भी है तो वह खबर समाचार पत्र समूह के उसूलों औरविज्ञापनों की बोली की भेंट चढ़कर डस्टबीन की शोभा बढ़ाती है। अगर इन बातों की छननी से वहखबर छन कर मूल बातों समेत बच जाती है तब कहीं जाकर वह खबर पेज पर अंकित हो पाती है।ऐसे में उक्त पत्रकार भगवान को धन्यवाद देता है कि चलों खबर छप गयी, पर इस खबर के प्रतिपत्रकार की ईमानदारी और मेहनत पीछे छूट जाती है और उसकी जगह संपादक व उच्च अधिकारी की प्रतिबद्धता ले लेती है।

आज की पत्रकारिता पर बाजार और व्यवसाय कादबाव बढ़ गया है। जिस कारण लोगों को जागरूककरने की अपनी आधारशिला से ही मीडिया भटकचुकी है और पेड न्यूज का रूप लेती जा रही है।मीडिया में 'पेड न्यूज' का बढ़ता चलन देश एवंसमाज के लिए ही नहीं अपितु पत्रकारिता के लिए भी घातक है। 'पेड न्यूज' कोई बीमारी नहीं बल्कि बीमारी का लक्षण है। इसका मूल कहीं और है। इस दिशा में सकारात्मक रुप से सोचने कीआवश्यकता है। मीडिया समाज का एक प्रभावशाली अंग बन गया है लेकिन आज इस आधारस्तंभ पर पूंजीपतियों का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो देश एवं समाज के लिए घातक है।

आज की मीडिया समाज को इस कदर प्रभावित कर चुकी है कि वह चाहे किसी को भी राजा औररंक की श्रेणी में खड़ी कर सकती है। लेकिन विडम्बना यह है कि इतनी शक्ति होने बाद भी मीडियाको हर ओर से आलोचना ही सुननी पड़ती है क्योंकि उसकी दिशा भ्रमित है या फिर ये कहा जाये किवह नकारात्मकता को ही आत्मसात कर चुकी है। हाल फिलहाल की घटनाओं पर नजर दौड़ाये तोगांधीवादी समाजसेवी अन्ना हजारे सबसे मजबूत पक्ष के रूप में उभरते हैं पर वास्तविकता कुछऔर ही है। भ्रष्टाचार के मुददे को लेकर अनशन करने वाले अन्ना मीडिया की विशेष कृपा केआधार पर "भ्रष्टाचार' जैसे प्रमुख मुद्‌दे से काफी बड़े हो गये। उनके अनशन के एक दिन पहलेदिल्ली स्थिति जंतर मंतर के पास इलेक्ट्रानिक मीडिया के 74 ओ.वी. वैन के रेले इकट्‌ठा हो गये,जैसे उस दिन प्रधानमंत्री देश को संबोधित करने वाले हों। मीडिया के इस विशिष्ट मेहमाननवाजीके कारण ही आज गली-गली में अन्ना की धूम मची हुई है। आखिर कौन है यह अन्ना हजारे, क्याकोई महात्मा है?देवदूत है? या फिर सरकार के सामानांतर शक्ति रखने वाले बंदा है? जो देश केलोगों को उसके पीछे चलने की बातें करता है और देश आंख मूदे उसके साथ हो लेती हैं। देश कीआम जनता तो चलों सरकार के निकम्मेपन से त्रस्त थी और बदलाव की बयार के साथ बह चलीपर बुद्धिजीवियों का गढ़ कही जाने वाली मीडिया भी अन्नामय हो चली थी कि जैसे इसमेंमीडियाकर्मियों का अपना स्वार्थ निहीत हो।

कहने को तो पत्रकारिता देश का चौथा स्तम्भ है। न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिकाजैसे देश के महत्वपूर्ण स्तंभों पर नजर रखने का कार्य करने वाली खबरपालिका आज अपने मूलकार्य से विमुख हो चुकी है। अपने प्रारम्भ में मिशन के तहत लोगों के बीच अपनी भूमिका कानिर्वाह करने वाली पत्रकारिता समय के साथ बदलते हुए प्रोफेशन के रूप में भी परिवर्तित हुई। परिवर्तन का यह दौर यहीं नहीं थमा, वर्तमान समय में पत्रकारिता का स्वरूप कमीशन के तौर परउभरा है। ऐसे में आज की पत्रकारिता को किसी भी तरह से पूर्व के मिशन और एम्बीशन के साथजोड़ कर देखना सही नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और मीडिया भी उसी का पालन कररही है। स्पेक्ट्रम घोटाले बाद तो पत्रकारिता और पत्रकार होने का मतलब भी बदल गया था।अक्सर मजाक के बीच गंभीर मुद्रा में यह कहा जाता कि नीरा राडिया जैसे कारपोरेट लाबिस्टों सेसंबंध रखने वाले ही बड़े पत्रकारों की श्रेणी में आते हैं। कल का यह मजाक अब लोगों केदिलो-दिमाग पर हावी हो गया है, खबरों के अन्वेषण की जगह उसे खरीदने-बेचने का काम चलनिकला है।

वर्तमान की पत्रकारिता को परिभाषित किया जाना हो तो उसे मानवीय संवेदनाओं को बेचने केअनवरत क्रम को शिद्‌दत से फैलाने का उपक्रम की संज्ञा दी जा सकती है। समाचार पत्र हो या फिरखबरिया चैनल सबमें आपस में टीआरपी की जंग छिड़ी हुई है, जिसके चलते सामाजिक सरोकारोंसे अलग केवल सामाजिक विषमता को फलने-फूलने का मौका मिल रहा है। शक्ति का दंभ और स्वयंभू होने के भाव ने आज मीडिया को सामाजिक प्रहरी के स्थान पर निर्णायक की भूमिका मेंदिखती प्रतीत होती हैं। मीडिया के इस चलन ने खबरों के प्रति पाठकों के नजरिये को बदल दियाहै। अब पाठकों के बीच मीडिया सूचना देने के बजाय अपना विचार परोसने में लगी हुई है।

मूलतः पत्रकारिता की प्रक्रिया ऐसी होती है जिसमें तथ्यों को समेटने, उनका विश्लेषण करने फिरउसके बाद उसकी अनुभूति कर दूसरों के लिए अभिव्यक्त करने का काम किया जाता है। ऐसे में इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या,प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है अथवा सुख,शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज कोतय करना होता हैं। वर्तमान में इन विषयों का गहन अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसकेआधार पर एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। यह इसलिएक्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यहकल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्णजीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं। वर्तमान में पत्रकारिता एक संक्रमण के दौर से गुजर रही है।इस क्षेत्र में सुधार के लिए स्तरीय प्रशिक्षण और व्यापक अनुसंधान की जरुरत है। समाज औरराष्ट्रहित में मीडिया को विरोध की सीमा और समर्थन की मर्यादा निर्धारित करनी चाहिए।उदारीकरण के कारण बाजारवाद का प्रभाव बढ़ा है। पत्रकारिता भी इससे मुक्त नहीं है, लेकिनस्थिति पूरी तरह निराशाजनक नहीं है। यह संक्रमणकाल है। अच्छाई और बुराई के इस संक्रमणमें अन्ततः अच्छाई की विजय होगी, इसके लिए अच्छाई के पक्षधरों को मुखर होना पड़ेगा।

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