शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

भौतिकता से ज्यादा मन के रावण को मारने की जरूरत-आकाश राय

दशहरा के पर्व को हम अच्छाई की बुराई पर जीत के रूप में मनाते है। इसे विजयदशमी के नाम से भी जाना जाता है क्योकि राम और रावण की लड़ाई दसवे दिन रावण के खात्में के साथ समाप्त हुई थी। यह पर्व मनाने के पीछे भी यही सोच निहीत है कि आज के दिन समाज और व्यक्ति के मन से रावण रूपी बुराई का अंत का हो और राम स्वरूप सदविचारो की ही जीत हो। लेकिन फिर भी आज हम सार्थक बातों को नकारात्मक दिशा में मना कर खुश होते हैं।

हमारे विजय दशमी के पर्व को मनाने के पीछे यह सोच कही खो कर रह गयी है कि अच्छाई ही सर्वोपरि है। बल्कि हम यह सोचकर अपनी खुशी को अमलीजामा पहनाते हैं कि बुराई को खत्म करना है। यह सोच भी गलत नहीं है पर बात सार्थकता की है कि क्या यह विचारधारा एक स्वस्थ्य मानसिकता और समाज को पनपने का मौका देगी। अगर हमें कुछ अच्छा करना है तो क्यों किसी के संहार या खात्में की बात हो। क्यो नहीं एक स्वस्थ सोच के साथ अपनी खुशियों को जीया जाये। क्या किसी त्यौहार को मनाने के पीछे यह बौद्धिक स्तर काफी नहीं कि उसमें क्या सकारात्मकता, सार्थकता और समाज को आगे बढ़ने की प्रेरणा आदि जैसी अच्छी बातें निहीत हैं। क्या किसी त्यौहार या पर्व को खुद की प्रगति के बजाय दूसरों की हार से मापा जाना ठीक है। वैसे तो सालो साल से हम दशहरा पर्व मना रहे है तथा रामलीलाओं आदि के माध्यम से इसका प्रचार भी करते है। पर क्या वाकई हम मर्यादापुरुषोतम श्री रामचंद्र के सतकार्य को समझ पाये हैं। क्या हम यह जान पाये हैं कि रामायण पूर्वतः राम के चरित्र और व्यवहार का ही दृश्टिकोण फैलाता है। हमने तो बस अपने मन-मौजीपन में दशहरा में राम का रूप धरे किसी कलाकार को रावण का बध किया जाना ही देखा है। पर वास्तव में आज भी रावण मर कर भी अमर है।

भले ही भौतिकता में हम उसके पुतले को जलाते हैं पर बात के हर लहजें में जिंदा रखे हुए हैं। वह हमारी नफरतों में जिंदा है तथा किसी भी गलत कार्य को परिणित होते देखते है तो उसे रावण की संज्ञा दे देते हैं। पर कभी दैनिक दिनचर्या में किसी के अच्छे कर्म के लिए उसे राम या उनके पदचालक की संज्ञा या उपाधि क्यो नहीं देतें। क्यो ऐसा करने से क्या राम नाम पर दाग लग जायेगा या फिर वह व्यक्ति उस प्रकार की प्रशंसा के काबिल नहीं हेाता। नहीं... बल्कि हमारे दिलो-दिमाग में आज राम से ज्यादा रावण की छवि रम-बस गयी है। जिसे हम बुरा कहकर, उससे घृणा करके भी अपने मन से नही निकाल पा रहे हैं। आज हममें किसी से द्वेश या घृणा के भाव इतने बलवती है कि हम आपसी प्रेम और सौहादर्‌र को भी भूल गये हैं और जब तक हम अपनी सोच में रावण को नहीं मार देते हमारे राम का अस्तित्व केवल शब्दो व नामों में ही बंध कर रह जायेगा।

आज वैसे भी दुनिया में ऐसे राम की संख्या काफी कम है जो कर्तव्य, व्यवहार और संस्कृति से राम शब्द का पालन करता हो। अतः हमे कोशिश कर राम जैसे चरित्र का ही त्यौहारों आदि के माध्यम से प्रचार-प्रसार करना चाहिए। ताकि हमारी नई पीढी एक अच्छे आइडियल पुरूष की कल्पना अपने मन में बसायें और एक सकारात्मक विचार दिशा की ओर अग्रसर हो सके।

(नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)

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