‘हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है...’ यह संवाद प्राण ने ही
अपने एक फिल्म में कहा था, जो आज उनके अभिनय जीवन के सार पर भी सटिक बैठ रहा है।
जीवंत अभिनय तथा बेहतरीन संवाद अदायगी के बलबूते दर्शकों के दिलों में खलनायक का
भयावह रुप उकेरने वाले प्राण की अदाकारी को भी शब्दों में नहीं ढ़ाला जा सकता। ऐसे
में उन्हें लेकर जितने भी शब्दजाल बिने जाये वो कमतर ही होंगे। तभी उनका डॉयलाग हम
बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है का जिक्र है, जो दर्शाता है कि प्राण ने अपने
संवादों को रुपले पर्दे पर ही नहीं बल्कि जीवन में भी उतारा।
प्राण को दादा साहेब फाल्के पुरस्कार की घोषणा शायद इस वजह
से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यह पहली बार परदे पर खलनायक की भूमिका अदा करने
वाले एक अभिनेता को मिल रहा है। प्राण सिनेमा के परदे पर खलनायकी के पर्याय हैं। प्राण
ने अपने करियर की शुरुआत पंजाबी फिल्म 'यमला जट' से 1940 में
की थी। 1942 वाली हिंदी फिल्म 'खानदान' से उनकी इमेज रोमैंटिक हीरो की बनी।
लाहौर से मुंबई आने के बाद 'जिद्दी' से उनके बॉलिवुड करियर की शुरुआत हुई।
इसके बाद तो वह हिंदी फिल्मों के चहेते विलेन ही बन गए।
प्राण ने हिंदी सिनेमा की कई पीढ़ियों के साथ एक्टिंग की।
दिलीप कुमार, देव आनंद और
राजकपूर के साथ पचास के दशक में,
साठ
और सत्तर के दशक में शम्मी कपूर,
राजेंद्र
कुमार और धर्मेंद्र के साथ उनकी कई फिल्में यादगार रहीं। मनोज कुमार की 'उपकार' के मंगू चाचा से वह पॉजिटिव करेक्टर के रूप में
भी आने लगे। वह जो रोल करते,
उसकी
आत्मा में उतर जाते। लोग उन्हें विलेन और साधु, दोनों रूपों में सराहने लगे। 'पूजा के फूल'
और
'कश्मीर की कली' जैसी फिल्मों से प्राण ने अपना नाता
कमेडी से भी जोड़ लिया। अस्सी के दशक में राजेश खन्ना और अमिताभ के साथ उनकी कई
यादगार फिल्में आईं।
उनकी खलनायकी के विविध रूप आजाद, मधुमति, देवदास, दिल दिया दर्द लिया, मुनीम जी और जब प्यार किसी से होता है में देखे जा सकते हैं। उनकी
हिट फिल्मों की फेहरिस्त भी बड़ी लंबी है। अपने समय की लगभग सभी प्रमुख
अभिनेत्रियों के साथ उनकी फिल्में आईं। पंजाब, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में शिक्षित प्राण किसी भी जबान और
लहजे को अपना बना लेते थे। उनकी अदा और डायलॉग डिलीवरी रील रोल को रियल बना देती
थी। उनका डायलॉग -'तुमने ठीक
सुना है बरखुरदार, चोरों के ही
उसूल होते हैं' खूब चर्चित
हुआ।
सबसे बड़ी बात यह कि चार सौ से अधिक फिल्में करने वाले
प्राण ने खुद को कभी दोहराया नहीं। पत्थर के सनम हो या जिस देश में गंगा बहती है, मजबूर हो या हाफ टिकट या फिर धर्मा, प्राण
ने हर फिल्म में अपनी मौजूदगी का पूरा अहसास कराया।
जीवन परिचय :
हिन्दी फ़िल्मों के जाने माने नायक, खलनायक और चरित्र अभिनेता के रूप में
मशहूर प्राण का असली नाम प्राण कृष्ण सिकंद है। प्राण साहब का जन्म 12 फ़रवरी, 1920 को पुरानी दिल्ली के बल्लीमारान
इलाके में बसे एक रईस परिवार में हुआ। बचपन से ही पढ़ाई में होशियार प्राण बड़े
होकर फोटोग्राफर बनना चाहते थे। 1940 में जब मोहम्मद वली ने पहली बार पान की दुकान
पर प्राण को देखा तो उन्हें फ़िल्मों में उतारने की सोची और एक पंजाबी फ़िल्म ‘यमला जट’ बनाई जो बेहद सफल रही। फिर क्या था इसके बाद
प्राण ने कभी मुड़कर देखा ही नहीं। 1947 तक वह 20 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम कर
चुके थे और एक हीरो की इमेज के साथ इंड्रस्ट्री में काम कर रहे थे। हालंकि लोग
उन्हें विलेन के रुप में देखना ज़्यादा पसंद करते थे।
प्रारंभिक अभिनय :
यह शायद संयोग नहीं कि प्राण ने अपने
अभिनय की शुरूआत महिला कलाकार के रूप में ही की थी। शिमला की रामलीलाओं में मदन
पुरी राम की भूमिका निभाया करते थे, जबकि सीता की भूमिका लंबे समय तक प्राण निभाते रहे। प्राण की
विलक्ष्ण अभिनय क्षमता ही थी कि एक सौम्य छवि को क्रूर खलनायक के रूप में उन्होंने
दर्शकों को स्वीकार करवा दिया। प्राण की अभिनय यात्रा का आरंभ छोटी छोटी नकारात्मक
भूमिकाओं से हुआ। 1940 में पंजाबी फिल्म ‘यमला जट’ में प्राण को
एक अहम् नकारात्मक किरदार मिला, फिल्म सफल हुई और उसके साथ प्राण की गणना भी
सफल अभिनेताओं में होने लगी। जल्दी ही वे लौहार फिल्म उद्योग में एक खलनायक की छवि
बनाने में कामयाब हो गए, इनकी
लोकप्रियता ने उसी समय निर्माताओं को हिम्मत दी और 1942 में लाहौर की पंचोली आर्ट
प्रोडक्शन के ‘खानदान’ में इन्हें उस समय की महत्वपूर्ण
अदाकारा नूरजहां के साथ नायक बनने का अवसर दिया गया। लेकिन खलनायक के अभिनय की
विविधता के सामने, नायक के
चरित्र की एकरसता प्राण को रास नहीं आयी। बटवारे से पहले प्राण तकरीबन २२ फिल्मो
में खलनायक की भूमिका निभा कर लाहौर में स्थापित हो गये थे। आजादी के बाद प्राण ने
लाहोर छोड़ दिया और मुंबई आ गए,
हालांकि
पाकिस्तान में नायक के रूप में उनकी ‘शाही लुटेरा’
जैसी
फिल्में आजादी के बाद तक दिखायी जाती रही और भारत आने के बावजूद पाकिस्तान के लोकप्रिय अभिनेताओं में
वे शुमार किये जाते रहे।
यादगार फ़िल्में :
प्राण 1942 में बनी ‘ख़ानदान’ में नायक बन कर आए और नायिका थीं नूरजहाँ। 1947
में भारत आज़ाद हुआ और विभाजित भी। प्राण लाहौर से मुंबई आ गए। यहाँ क़रीब एक साल
के संघर्ष के बाद उन्हें बॉम्बे टॉकीज की फ़िल्म ‘जिद्दी’
मिली।
अभिनय का सफर फिर चलने लगा। पत्थर के सनम, तुमसा नहीं देखा,
बड़ी
बहन, मुनीम जी, गंवार, गोपी, हमजोली, दस नंबरी, अमर अकबर एंथनी, दोस्ताना, कर्ज, अंधा क़ानून,
पाप
की दुनिया, मत्युदाता
क़रीब चार सौ से अधिक फ़िल्मों में प्राण साहब ने अपने अभिनय के अलग-अलग रंग
बिखेरे। इसके अतिरिक्त प्राण कई सामाजिक संगठनों से जुड़े हैं और उनकी अपनी एक
फुटबॉल टीम बॉम्बे डायनेमस फुटबॉल क्लब भी खोला।
स्टाईल आईकन :
प्राण स्टाइलिश ऐक्टर थे लेकिन फर्क यह था कि
जहां अधिकांश अभिनेता अपने स्टाइल को अपना ब्रांड बनाकर जिंदगी भर दुहराते रहे। प्राण
हरेक फिल्म में अपने एक नये स्टाइल के साथ आए। कभी-कभी स्टाइल के लिए उन्होंने
सिगरेट, रूमाल, छड़ी जैसी चीजों का भी सहारा लिया। अधिकांश
फिल्मों में स्टाइल उनकी आंखों,
होठों
और चेहरे के भाव से बदलते रहे। हां, प्राण शायद ऐसे पहले अभिनेता थे जिन्होंने आवाज और मोडूलेशन बदलकर
पात्र को एक नई पहचान दी। बाद में जिसका इस्तेमाल अमिताभ बच्चन ने ‘अग्निपथ’ में, शाहरूख खान ने ‘वीरजारा’ में और बोमन ईरानी ने ‘वेलडन अब्बा’ में किया। प्राण अपने अभिनय के बारे में
कहते भी थे, मैं पात्र में
नहीं उतरता पात्र को अपने अंदर उतार लेता हूं। आज के मेथड एक्टिंग में उनका यकीन
नहीं था। यह प्राण की ही खासियत थी कि अपने मैनेरिज्म के साथ भी वे दर्शकों को एक
ओर ‘उपकार’ के मंगल चाचा दूसरी ओर ‘विक्टोरिया नं.203’ के राणा के रुप में भी स्वाकार्य हो
सकते थे।
फ़िल्म समीक्षकों की दृष्टि से :
प्रख्यात फ़िल्म समीक्षक अनिरूद्ध शर्मा
कहते हैं, ‘प्राण की
शुरुआती फ़िल्में देखें या बाद की फ़िल्में, उनकी अदाकारी में दोहराव कहीं नज़र नहीं आता। उनके मुंह से निकलने
वाले संवाद दर्शक को गहरे तक प्रभावित करते हैं। भूमिका चाहे मामूली लुटेरे की हो
या किसी बड़े गिरोह के मुखिया की हो या फिर कोई लाचार पिता हो, प्राण ने सभी के साथ न्याय किया है।
फ़िल्म आलोचक मनस्विनी देशपांडे कहती
हैं कि वर्ष 1956 में फ़िल्म हलाकू में मुख्य भूमिका निभाने वाले प्राण ‘जिस देश में गंगा बहती है’ में राका डाकू बने और केवल अपनी आंखों
से क्रूरता ज़ाहिर की। पर फिर 1973 में ‘जंजीर’ फ़िल्म में
अमिताभ बच्चन के मित्र शेरखान के रूप में उन्होंने अपनी आंखों से ही दोस्ती का
भरपूर संदेश दिया। वह कहती हैं कि उनकी संवाद अदायगी की विशिष्ट शैली लोग अभी तक
नहीं भूले हैं। कुछ फ़िल्में ऐसी भी हैं जिनमें नायक पर खलनायक प्राण भारी पड़ गए।
चरित्र भूमिकाओं में भी उन्होंने अमिट छाप छोड़ी है।
फिल्मफेयर और पद्म भूषण से सम्मानित :
प्राण को तीन बार बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर
का फिल्मफेयर अवॉर्ड मिला। 1997 में उन्हें फिल्मफेयर लाइफ टाइम अचीवमेंट खिताब से
नवाजा गया। आज भी लोग प्राण की अदाकारी को याद करते हैं। बॉबी, मधुमति, खानदान, औरत, जिस देश में
गंगा बहती है, हॉफ टिकट, उपकार, पूरब और पश्चिम, डॉन और जंजीर कुछ उनकी मशहूर फिल्में हैं। वर्ष
2001 में हिंदी सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए उन्हें पद्म भूषण से भी सम्मानित
किया गया।
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