जब कभी थकान हो, मुंह लगाये चाय..
मिले कड़क स्वाद में जो सौंधी खुशबू...
तो तन-मन के सब घाव भर जाय..
नहीं मशहूरी, नहीं विलायती...
हमें तो भाती देशी चाय..
घर की तो बात अलग है..
दिल को भाये नुक्कड़ की चाय..
एक आवाज में कुल्हड़ आता,
लेत चुस्किया दिन बना जाता..
है घाट किनारे अपनी ठाठ…
जहां दोस्त जोहते अपनी हाट
हाल क्या अपना अब बतलाए,
कागज का कप है, पानी सी चाय..
ना अब चाय की प्याली कुल्हड़ है,
ना अब मेरी हरकतें अल्हड़ हैं..
अब सादे से वेश में सादा सा आदमी हूं,
और चाय के नाम पर पीता बस चासनी हूं..
ना स्वाद है, ना रंग है.. ना ही वो बात है..
बस उलझने के दौर में जिंदगी बिसात है..
दिन वो फिर बहुरेंगे, फिर से शामें घाट पर होंगी,
फिर कुल्हड़ हाथों में होगा, मन में फिर मिठास घुलेगी,
रंग जमेगा, महफिल होगी.. लहरों में भी रवानी होगी..
जब बैठ घाट पर बतकच्चन में, दिन से शाम सुहानी होगी.."
जरुर वो दिन आयेंगे जब सभी दोस्त एक बार फिर अस्सी घाट पर चाय पियेंगे
जवाब देंहटाएं