
लेबल
- कविता.. (103)
- शायरी.. (42)
- लेख.. (31)
- अपनी बेबाकी... (21)
- Special Occassion (8)
- समाचार (7)
- तथ्य.. (2)
रविवार, 31 जुलाई 2011
मोहम्मद रफ़ी : वो जब याद आये, बहुत याद आये......

रविवार, 24 जुलाई 2011
...और क्या देते
सितारों से किसी की मांग भरना इक फ़साना है ,
तुम्हारे नाम लिख दी जिंदगानी और क्या देते ,
बिछरते वक़्त तुम्हे इक न इक तोहफा तो देना था ,
हमारे पास था आँखों में पानी और क्या देते ...!"
खलीश मन की...
जो बीत गया है, वो गुज़र क्यों नहीं जता,
वो एक ही चेहरा तो नहीं, सारे जहां में,
जो दूर है, वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता,
मैं अपनी ही उलझी हुई, राहों का तमाशा,
जाते हैं जिधर सब, मै उधर क्यों नहीं जाता,
वो नाम जो बरसो से, ना चेहरा ना बदन है,
वो ख्वाब अगर है, तो बिखर क्यों नहीं जाता...."
इक बात कहूं गर सुनते हो ..
तुम मुझको अच्छे लगते हो .
कुछ चुप - चुप से , कुछ चंचल से ,
कुछ पागल - पागल लगते हो .
हैं चाहने वाले और बहुत ,
...पर तुम में है इक बात अजब ,
तुम मेरे सपने से लगते हो.
इन ख्वाबों से आगे बढ़कर .
तुम अपने अपने से लगते हो .
इक बात कहूं गर सुनते हो .
तुम मुझको अच्छे लगते हो .
मैं..
कांटा हूँ मगर फूल पे चुभता तो नहीं मैं!
अपनों से तो रूठा हूँ मैं सौ बार बहरहाल,
पर गैरों में जाकर कभी बैठा तो नहीं मैं!
रोता है अब भी दिल मेरा अक्सर ये सोचकर,
भूला हैं मुझे वो, उसे भूला तो नहीं मैं!
खुद्दारी की कुछ दाद तो तुम्ही दो मेरी आँखों,
हालात तो रोने के थे रोया तो नहीं मैं! "
शनिवार, 23 जुलाई 2011
मानसिक गुलामी और संकीर्णता के दायरे में सजी आजादी
आजादी, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लम्बे समय तक राष्ट्रविरोधी शक्तियों से संघर्ष किया और अपने प्राणों की आहुति देकर कर हमें स्वतंत्र वातावरण में सांस लेने का हक दिलाया। आज इस आजादी को हमने अपने निजी स्वार्थ और एकमेव लाभ की मनोदशा के आधार पर फिर से गिरवी रख दिया है। कल तक जिस आजादी के सुनहरे स्वप्न को अपनी पलकों में सजोकर हमारे देश के स्वातंत्र वीरों ने अपनी भारत माता को विदेशी ताकतों से आजाद कराने के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया, आज उसी भारत में सियासत और तुष्टीकरण की ऐसी आंधी बह चली है की आजाद देश की गुलाम जनता सत्तासीन निरीह हुकूमत के खिलाफ जूझने पर मजबूर है।
लूट आज भी बदस्तूर जारी है, फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय गोरे अंग्रेजों ने देश को दीमक की तरह खोखला किया और आज काले अंग्रेज़ इस काम को कर रहे हैं। खेल वही है बदले हैं तो सिर्फ इसके किरदार। उस दौर में सत्ता और धन पर नियंत्रण अंगरेज़ हुक्मरान और देसी रजवा‹डों-नवाबों तक सीमित था, आज सफ़ेद पोश नेताओं, अफसरों और सत्ता के दलालों के हाथ में है। आजादी के बाद बने पहले प्रधान मंत्री द्वारा सन् १९४८ में पंचवर्षीय योजनाओं का शुभारंभ किया गया था, जिसके अंतर्गत देश का विकास किया जाना था लेकिन आज कितने लोग हैं जो जानना चाहते है कि पंचवर्षीय योजना के तहत क्या कार्य किये गये हैं? प्रत्येक वर्ष कितना पैसा पंचवर्षीय योजनाओं के नाम पर खर्चा जाता है यह जानने वाला कोई नहीं?
स्वतंत्रता पूर्व जिस अवस्था में भारत और भारतवासी थे, उसमें देशवासियों पर केवल सरकार के खिलाफ कार्य न करने देने की पाबंदी थी लेकिन आज स्थिति उससे भी अधिक भयावह हो गयी है। एक तरफ महात्मा गाँधी के रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने का स्वप्न दिखाकर देश के हुक्मरान देशवासियों के खून-पसीने की कमाई को विदेशी बैंको में ज़मा कर रहें है तो दूसरी तरफ महगाई की चाबुक निरीह जनता की कमर तो‹ड रही है। बाकि बची कसर सरकार का ‘कर तमाचाङ्क आये दिन हमारे शक्ल की मालिश कर पूरा कर रहा है। क्या इसी आज़ादी की संकल्पना हमारे देश के अमर शहीदों और महापुरुषों ने की थी...? वास्तव में हमें आजादी नहीं मिली है, बल्कि देश की सत्ता को विदेशी गोरों से स्थानांतरित कर उन्हीं की नुमाइंदगी करने वाले देशी काले लोगों की हाथों में सौंप दी गयी है। वास्तविकता यह है कि आज भी हम मानसिक रूप से गुलाम हैं।
सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक पुरातन देश है, किन्तु राजनीतिक दृष्टि से एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में भारत का विकास होना चाहिए था जिसमे स्वतंत्रता-संग्राम के साहचर्य और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नवोन्मेष के सोपान का दर्शन हो। लेकिन अब समय की आवश्यकता है कि सभी राजनीतिक पार्टियां और नीति निर्देशक तत्व देश की जनता के सामने यह स्पष्ट करें कि वे देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। स्पष्ट करें अपनी अपनी रणनीति कि देश से गरीबी हटाने, भ्रष्टाचार को मिटाने, आतंकवाद को ज‹ड से उखा‹डने, नक्सलवाद के सफाए, समस्त भारतीयों को निर्भय एवं सुखी, संपन्न और विश्व में भारत को एक भरोसेलायक आर्थिक महाशक्ति बनाने के लिए क्या पुष्ट योजनाएं और किसके पास हैं। देश को विकास पथ पर ले जाने की बात करने वाले हमारे राजनेता धनलोलुप्सा को जागृत किये हुए हैं और जनता को विश्वास का घोल पिलाये जा रहे है कि सरकार उन्हीं के लिए तो प्रतिबद्ध है।
देश की जनता और आजादी के परवानों ने अनगिनत कुर्बानियां दे कर देश को अंग्रेजों से आज़ाद करवाया ताकि इस देश की धन संपदा इस देश की गरीब जनता को नसीब हो और वे अपना भविष्य संवार सकें। लेकिन आज देश में भ्रष्टाचार चरम पर है। घोटाले पर घोटाले हो रहे हैं। नेता भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं। ऐसे में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि विदेशी गोरे लोगों के पिटठू, जो सरकार बन हमारे देश की दिशा और दशा तय कर रहे हैं, इन्हें देश और देश के विकास में कोई रूचि नहीं है। तो क्या यह सवाल नहीं उठता कि अगर गोरे लोगों की नीतियों को ही देशी लोग अनुपालन में लाया जा रहा है वो भी और घृणित रूप मे तो इससे बेहतर तो अंग्रेजों का ही शासन था, जहां कम से कम इतनी खामियां तो नहीं थी। आजाद भारत की व्यवस्था और सामाजिक स्थिति पर कई सवाल खडे़ होते हैं जिनमें मुख्य यह है कि ऐसी आज़ादी किस काम की जो हमें मानसिक गुलामी और संकीर्णता के दायरे से मुक्त ना कर सके?ङ्क
आजादी शब्द जिसका मतलब ही है कि इंसान को अपने मन के मुताबिक कार्य करने की स्वतंत्रता हो। पर वास्तविकता यह है कि हमारी आजादी अन्य लोगों की सोच पर निर्भर करती है कि वह इसके बारे में क्या सोचते हैं। ऐसे में स्पष्ट है कि आज आजादी की आबो-हवा में सांस लेने वाले लोग अपनी मौलिक सोच को अब भी सामने वाले की बातों का गुलाम बना कर रखे हुए हैं। शाब्दिक अर्थो के तौर पर लोग आजादी को केवल अपने लाभ और स्वार्थसिद्धी का माध्यम मामने का चलन चल पडा है, किसी को इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि आजादी का मूलभाव क्या है और किस लिए लाखों देशवासियों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर किया। सरकारी अधिकारी अपने नौ से पांच के कार्य अवधि पर चाय और पान के साथ बातों के हवाई किले बनाते हुए समय को बिताते हैं और वेतन का भोग लगाते हैं। ऐसे में कैसे कहा जाये की इसी आजादी के लिए कभी देश में संग्राम हुआ था।
भारत ऐसा देश है जिसके पास दुनिया का सबसे ब‹डा लिखित संविधान है। परन्तु अब भारत, जिसने हर संकट की घ‹डी में बिना धैर्य खोये हर मुसीबत का सामना किया, अनेकों बुराइयों से जकडा हुआ है। मसलन आतंकवाद, भ्रष्टाचार, आर्थिक विषमता, जातिवाद, सत्ता लोलुपता के लिए सस्ती राजनीति करना जो कि कभी-कभी सामाजिक वैमनष्य के साथ-साथ देश की एकता को ही संकट में डाल देता है। इसके अलावा राजनीति में वंशवाद व भाई-भतीजावाद, न्यायिक प्रक्रिया में विलम्ब इन सारी नकारात्मक खूबियों से लबरेज कुशासन और कुव्यवस्था, जिसमें नौकरशाही के भ्रष्टाचार और चालबाजियों ने लोगों के दैनिक जीवन में निराशा घोल दी हो। जहाँ कुशासन ने न्याय-तंत्र की निष्पक्षता में लोगों की आस्था हिला दी हो, ऐसी आजादी किस काम की।
आज की इस आजाद भारत में रहने वालों की बात की जाये तो उनकी अपनी मानसिकता में आजादी का अलग ही मायने है। जेपी आंदोलन के प्रमुख नायकों में एक वरिष्ठ पत्रकार रामबहादुर राय का कहना है कि हमारी वर्तमान व्यवस्था अर्थात संविधान के अनुसार अंतिम सत्ता साधारण नागरिक में है लेकिन उस पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। जरूरत है एक ऐसी व्यवस्था की जो सत्ता पर आम आदमी का नियंत्रण स्थापित करे। आज जनता के हाथ में जो ताकत है, वह दिखावटी अधिक है। आजादी के बाद बना हमारा संविधान एक ऐसे उल्टे पिरामिड की रचना करता है जिसमें सत्ता नीचे से ऊपर नहीं बल्कि ऊपर से नीचे आती है। दूसरे शब्दों में कहूं तो यह संविधान स्वतंत्रता सेनानियों के सपनों के अनुरूप नहीं है। स्वाधीनता संग्राम का जो लक्ष्य था हम उस लक्ष्य तक नहीं पहुच सके हैं।
रामबहादुर राय के अनुसार वर्तमान में देश में अनुपालित संविधान सिद्धांततः तो लोकतंत्र कायम करता है लेकिन वास्तविक स्थिति में यहां लोकतंत्र नहीं है। यह अंग्रेजों की योजना में बना हुआ संविधान है। सत्ता के लिए अधीर हो चुके कांग्रेसी नेताओं ने अंग्रेजों से समझौता कर एक काम चलाऊ संविधान बना लिया। १९३५ का जो कानून अंग्रेजों ने बनाया था, उसी कानून के अस्सी फीसदी हिस्से को इस संविधान में जगह दे दी गयी है। १९३५ में बने गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट को नेहरू ने गुलामी का दस्तावेज कहा था। अब बताइए गुलामी के दस्तावेज पर बने इस संविधान को हम क्यों मानें। व्यवस्था परिवर्तन में जु‹डे लोगों को अब सबसे पहले इस संविधान को ही बदलने की कोशिश करनी होगी। आजादी के सही मायने तभी सामने आयेंगे जब इसके मुताबिक संविधान बनाया जायेगा।
स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस के अवसर पर स्कूल कालेजों और अन्य सरकार विभागों पर तिरंगे झंडे को फहराने भर से आजादी का औचित्य नहीं सामने आ पाता। जिस उद्देश्य से भारत देश की आजादी के लिए लोगों ने प्रयास किये कि देश में समानता, सम्पन्नता और विकास की छंटा लहराया करेगी, सब ओर खुशहाली होगी और सब एकजुट होकर रहेंगे। यह सारी उद्देश्यपरक वैचारिकता आज के भोग-विसाली समाज में कहीं विलुप्त हो चुकी है। कष्टों से मिली आजादी पर हर भारतीय की अपनी-अपनी अलग राय है। कोई देश में कानून व्यवस्था, राजनीतिज्ञों एवं सरकारी अफसरों की बेईमानी का रोना रोते हैं। तो कुछ लोग अपनी स्वार्थता को ही आजादी का परिचायक बताते हैं। लेकिन इससे अलग एक और भारतीय वर्ग है जो सरकार और सरकारी कार्यगुजारियों की मार झेल रहा है। उनके लिए आजादी के मायने अलग हैं जब आपको इंसाफ़ के लिए लडाई लडनी प‹डे, मतलब आपको सही मायनों में आज़ादी नहीं मिली है। पैसे वाले आरोपी अपने रसूख़ के बल पर कानूनी प्रक्रिया को खींचते रहते हैं। जब तक देश में भय का माहौल रहेगा, हमारी आज़ादी औचित्यहीन हैं।
मंगलवार, 19 जुलाई 2011
दिल-ए-हालत...
ना है मंजिल ना कोई राहे गुजर देख रहा हूँ !
टूटेगा दिल ये इश्क में हर बार की तरह,
में खुद को आजमा के मगर देख रहा हूँ !
यूँ मरने का मैं इतना शौकीन तो ना था,
मोहब्बत का मगर खुद पे असर देख रहा हूँ !
इस बार भी दुश्मन से खायी हैं गालियाँ,
कुछ ऐसा शराफत का असर देख रहा हूँ !
माना कि वो बेमरव्वत मुझे रखता हैं गैरों में,
मैं उसको अपना कह के मगर देख रहा हूँ !...."
कौन लेगा 'बिग थ्री' की जगह?
शुक्रवार, 1 जुलाई 2011
एक सच जीवन का ....
कहीं सांस का आना जाना तक पीड़ा का बंधन है/
हम सब सिलबट्टे पर रखकर खुद अपने को पीस रहे हैं,
और जमाने की नजर में- मिला मुफ्त का चन्दन है//
संबंधों के कोलाहल में सिर्फ स्वार्थ की अनुगूँज हैं,
...वरना मन की देहरी पर तो सन्नाटें ही बिखरे हैं/
रहा सवाल उड़ने का हवा में तो सुनो सलोने पंछी,
पंख तुम्हारे भी कतरे हैं, पंख हमारे भी कतरे हैं...//"