ना है मंजिल ना कोई राहे गुजर देख रहा हूँ !
टूटेगा दिल ये इश्क में हर बार की तरह,
में खुद को आजमा के मगर देख रहा हूँ !
यूँ मरने का मैं इतना शौकीन तो ना था,
मोहब्बत का मगर खुद पे असर देख रहा हूँ !
इस बार भी दुश्मन से खायी हैं गालियाँ,
कुछ ऐसा शराफत का असर देख रहा हूँ !
माना कि वो बेमरव्वत मुझे रखता हैं गैरों में,
मैं उसको अपना कह के मगर देख रहा हूँ !...."
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