रविवार, 18 दिसंबर 2011

आरक्षण की बैसाखी नहीं अवसर की समानता का अधिकार दो

देश में जब-जब चुनाव करीब आते हैं, चुनावी वायदों और घोषणओं की बयार बहने लगती हैं। अगले साल पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं। प्रत्येक राज्य में सियासी पार्टियां अपने-अपने प्रदेशों के हिसाब से जीत पक्की करने के लिए जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्रिय विकास का सहारा लेकर जनता के पास जाती हैं। उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है यानि यों कहें कि यूपी कई देशों से भी बड़ा है। यूपी की आबादी करीब 20 करोड़ है। देश की आबादी के 16.49 फीसदी लोग इसी राज्य में रहते हैं। देश में सर्वाधिक अनुसूचित जाति के लोग भी इसी राज्य में हैं और मुस्लिमों की संख्या भी बहुतायत में है।

प्रदेश की मुखिया मायावती ने राज्य को चार हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव विधान सभा में पारित करा कर अपने इस फैसले को विकास का कारगर फॉर्मूला बताया है। ऐसे में कांग्रेस भी कहां पीछे रहने वाली थी। कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद ने एटा में मुस्लिमों आरक्षण का मुद्दा उठा कर सियासी चाल चल दी। हालांकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी मुस्लिमों को आरक्षण देने की बात बहुत पहले भी उठाती रही है, फिर बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी मुस्लिम आरक्षण की वकालत की है। चुनाव पास आते ही सभी राजनीतिक पार्टियां वोटरों को आकर्षित करने के लिए कई हथकंडे अपनाते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही नेता सारे वादे भूल जाते हैं।

अब सवाल ये उठता है कि क्या आरक्षण से पिछड़ों का विकास संभव है। देश को आजाद हुए 64 साल बीत गए। पिछड़ी जातियां और दलितों के उत्थान के लिए सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था लंबे समय से चली आ रही है। इन आरक्षण से गरीबों और पिछड़ी जातियों का कितना विकास हुआ। उसके जीवन स्तर में कितना सुधार हुआ। परिणाम में कोई खास फर्क नहीं दिखता है। आज भी दलितों और पिछड़ी जातियों के लोगों की आर्थिक हालत बहुत खराब है। खासकर गांवों में जहां रोजगार के साधन नहीं के बराबर हैं। आरक्षण सिर्फ सरकारी नौकरियों में है, जिनकी संख्या बहुत कम है। 120 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले देश में केंद्रीय नौकरियां और राज्य की नौकरियों को मिला दिया जाए तो अधिक से अधिक ढ़ाई करोड़ लोग सरकारी नौकरियां कर रहे होंगे। जिसमें अनुसूचित जाति और जनजाति तथा पिछड़ी जातियों का कुल हिस्सा करीब 54 फीसदी है। क्या 5-6 करोड़ लोगों को सरकारी नौकरी दे देने मात्र से पिछड़ी जातियों का पिछड़ापन दूर हो जाएगा, कभी नहीं।

1990 में उदारीकरण के बाद देश में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां आईं, जिससे रोजगार के नए अवसर भी खुले। कौशल में निपुण युवाओं को इन बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरियां मिली। इस दौरान देसी प्राइवेट कंपनियों में भी योग्यता के हिसाब से युवाओं को नौकरियां मिलीं। देश में प्राइवेट नौकरियों की बहार आ गईं। सैलरी (वेतन) भी अच्छी खासी दी जाने लगी। सरकारी नौकरियों से कई गुना ज्यादा निजी क्षेत्र में नौकरियां पैदा हुईं। इन निजी कंपनियों में आरक्षण की कहीं कोई व्यवस्था नहीं है। सरकार एक ओर जहां निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। वहीं, आरक्षण का दायरा भी बढ़ा रही है। हाल ही में केंद्र सरकार ने 50 से ज्यादा नई जातियों को पिछड़ी जातियों की श्रेणी में शामिल किया है। अब अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की श्रेणी में मुस्लिमों को शामिल करने की बात चल रही है ताकि मुस्लिमों को भी आरक्षण का लाभ मिल सके। अगर धीर-धीरे सभी जातियों का आरक्षण दे दिया जाय तो आरक्षण का औचित्य की खत्म हो जाएगा।

आम जनता को सरकार की इस चाल को समझना पड़ेगा। एक ओर सरकारी नौकरियां धीरे-धीरे कम हो रही हैं। वहीं, आरक्षण का झुनझुना लोगों को बांटने की बात दिन-रात हो रही है। यह बहुत बड़ा छलावा है, इसे गंभीरता से समझना होगा। अगर सरकार सही मायने में दलितों, पिछड़ी जातियों और पिछड़े मुसलमानों की तरक्की चाहती है तो उसे अवसर की समानता देनी होगी। देश में हर व्यक्ति के लिए समान अवसर मुहैया करना होगा। गरीबों और अमीरों के बच्चों को समान शिक्षा व्यवस्था देनी होगी। जैसा स्कूल नई दिल्ली में संभ्रांत परिवार के बच्चों के लिए होता है वैसी स्कूली सुविधाएं गरीबों के बच्चों के लिए जैसलमेर, लद्दाख, किशनगंज, जंगलमहल, गंजाम में भी होनी चाहिए। मतलब कश्मीर से कन्या कुमारी और अरुणाचल प्रदेश से राजस्थान तक प्रत्येक स्कूल और कॉलेज में पढ़ने लिखने की समान व्यवस्था होनी चाहिए। ताकि देश के किसी भी कोने में सभी जाति और धर्म के बच्चों को आगे बढ़ने का अवसर मिल सके।

इतना ही नहीं इंजीनियरिंग, मेडिकल, मैनेजमेंट के निजी कॉलेजों को बंद कर दिया जाना चाहिए। अगर सरकार देश के पिछड़े लोगों के बारे में सही मायने में सोचती है तो उसे निजी शिक्षण संस्थानों को बंद कर देना चाहिए, क्योंकि प्राइवेट शिक्षण संस्थानों में काफी मोटी फीस वसूलकर एडमिशन लिया जाता है। जिससे दलित और पिछड़ी जातियों के बच्चे पैसे के अभाव में सही शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं। सरकार आरक्षण नहीं देकर देश के तमाम आर्थिक रुप से पिछड़ों के लिए अगड़ों से समान अवसर उपलब्ध करा कर उसमें आज के जमाने के अनुसार कौशल विकसित करें तो भारत निश्चित तौर पर चीन का आर्थिक रुप से मुकाबला कर सकता है।

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