कहने को तो फिल्मे समाज का आईना होती हैं . परदे पर वही कहानी दिखाई जाती है जो वास्तविकता में इंसानों के जीवन में घटित होती है कभी-कभी ऐसा लगता है की परदे पर प्रस्तुत हो रहा व्यक्तित्व किसी भी प्रकार से आम लोगों से मेल नहीं खता। क्या कभी ऐसा देखा
अक्सर ऐसा होता है की मसाला फिल्मो से अलग किसी सन्देश को लेकर प्रचारित होती फिल्मे फ्लॉप हो जाती हैं पर उसका सन्देश पूर्णतः बेकार जाए ऐसा कभी नहीं होता । तभी तो सभी प्रकार के ड्रामे के साथ हसी-मजाक में आमिर ने मन की सुनकर कैरीअर बनाने की बात कही और लोगो ने इसे सराहा । विजय हर्षवर्धन मालिक के किरदार ने भी सार्थक पत्रकारिता की लड़ाई लड़ी , जिसकी मशाल पूरब शास्त्री (रितेश देशमुख ) जैसे युवा के हाथो में थमा दी ताकि जर्नलिज्म को सही दिशा में ले जाने के लिए युवा उत्तरदाई बने ना की टीरपी को लक्ष्य बनाये ।
इस प्रकार ये साबित हो गया की अब हमारा सिल्वर स्क्रीन मसालों की तड़क भड़क के बीच समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता के साथ भी अपने कदम बाधा रहा है। जो शायद आने वाले भविष्य में हमारी नई पीढ़ी को नया तजुर्बा सिखाये।
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