यह फिल्म रण के एक गीत की वह पंक्ति है जो कहानी के अनुसार मीडिया की महत्ता को दर्शाती है की अगर मीडिया ने
1- कुछ चुनिन्दा अवसरवादी लोगो की कट्टरपंथी सोच का नाम ही कौमी नफरत है ।
इस संवाद ने शायद सभी को एक बार तो यह सोचने को मजबूर कर ही दिया होगा की ये वाकई सच है । और उस पल हमारे मन की साड़ी कद्वाहते ख़तम हो गयी होंगी ।
2- कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं होता बस लोग होते हैं । अपने-अपने तरीके से जीवन जीना ही धर्मं है ।
यह संवाद विचारों की मंथन चासनी में काफी पाक कर ही कागज़ पर आया है । लेखक भी अक्सर सोचता रहता होगा की आखिर ये धर्मं है क्या ? क्या दो लोगो के बीच विषमता की परिभाषा ही धर्मं है ?
अगर किसी भी धर्मं या जाती के दो लोगो को आपस में बदल कर एक-दुसरे के स्थान पर रखा जाएऔर सारे काम उन्हें दुसरो की तरह करने हो तो भला कौन कह पायेगा की अब वह हिन्दू-मुस्लिम याकिस अन्य जाती का है । बल्कि वह सिर्फ एक इंसान है, हाड-मांस का बना जो हमारी-आपकी तरहकेवल खुद का पेट पालने के लिए काम करता है । उसे ना तो दुनियादारी की चिंता है ना किसीधर्मं-जाती की , वह बस काम करता है और अपने मालिक से चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लमान अपनीमजदूरी ले घर को आता है ।
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