गुरुवार, 21 जनवरी 2010

बंधन में उन्मुक्त सोच




पिंजरे में कैद पंछी ये सोचता रहा

छूना था आसमान पर क्या से क्या हुआ


वीरान जजीरे पे खड़ा देख रहा हूँ

हर ओर अंतहीन समंदर का सिलसिला


हम अपनी सफाई में कभी कुछ कहेंगे

एक रोज़ वक़्त खुद ही सुना देगा फैसला


लोगो की शक्ल में महज जिस्म बचे हैं

रूहें तो जाने कब की हो चुकी हैं गुमशुदा


जो ज़िन्दगी को जीते रहे अपनी तरह से

ये सिर्फ वही जानते हैं उनको क्या मिला


अच्छा कहा किसी से किसी से बुरा कहा

मै तो बस आईने की तरह पड़ा रहा


जिसने जैसा चाहा वैसा ही अक्स पाया

किसी को वाह वाही तो किसी को खरा लगा


रिश्तों को मत बना या मिटा खेल समझ कर

रिश्ते बना तो आखिरी दम तक उसे निभा ....

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