शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

गलत दौर में पाई ज़िन्दगी



बहुत चोट खाई पर आई न चतुराई

जीवन भर बस पाता रहा मेहनत की कमाई

समझाते रहे साथी की खुद को कुछ बदलो

पर कहाँ ठेठ मानस को बात समझ में आई


अब भी लगा पड़ा हूँ अपनी ही धुन में

की न मिला चाहे कुछ पर शीश ना झुकाई

आज शायद ना झुकी नज़रों का हश्र मै जनता हूँ

हेय हुआ सबकी नज़रों में पर खुद में शाख बचाई


शायद मै आज के दौर का अवतार नहीं हूँ

फिर भी हर जंग पे है अपनी जान लड़ाई

न जीत सका इस दुनिया को अपने हिसाब से

पर जी रहा हूँ क्या ये कम है लड़ाई


हर पल बढ़ते लोगो में विश्वास को मरते देखा है

मै बढ़ा दो कदम ही पर चढ़ा विश्वास से

ना जानता हूँ ना जानने की कसक है दिल में आई

कि लोग मानते मुझे बुजदिल या मेरे हिम्मत ने दाद पाई


मै यूँ ही चल पड़ा था अपने ही जूनून में

न सोचा कोई साथी करेगा हौसला अफजाई

पर जहाँ भर की खुदगर्जी में कुछ दोस्त ऐसे मिले

जो दौड़ती दुनिया में मुझ पैदल की कर रहे बड़ाई


मै कोसू भी तो कैसे अपने ही जनम को

पर सच है मैंने गलत दौर में है ज़िन्दगी पाई

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