सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

चैनलों की भीड़ में भी अखबार का सर ऊँचा

'खींचो ना कमानों को, ना तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’ अकबर इलाहाबादी की यह लाइनें आज भी उतनी ही अर्थपूर्ण है जितनी कि उस जमाने में, जब ये लिखी गई होंगी। इसे कोई नकार नहीं सकता इसका प्रमाण है कि संसद में आज भी आए दिन विभिन्न विषयों पर अखबारों की रिर्पोटों को बतौर उदाहरण रखा जाता है।

29 जनवरी 1780 को पहली बार कलकत्ता से प्रकाशित भारत के प्रथम अखबार ’बंगाल गजट’ के जन्म दिवस के रूप में 29 जनवरी को ’न्यूजपेपर डे’ मनाया जाता है। ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि खबरिया टीवी चैनलों की 24*7 खबरों की आंधी में अखबार खत्म हो जाएगा ऐसे लगाये गये सभी कयासों को अखबारों ने झूठा और तर्कहीन साबित कर दिया है। खबरिया टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर ब्रेकिंग न्यूज, फिल्मी प्रोग्रामों के लटके झटके, विभिन्न तरीकों से भाग्य बांचते बाबा और सुंदरियां, खोजी पत्रकारिता के नाम पर नेताओं के बेडरूम में तांक झांक, के साथ सबसे तेज खबर परोसने के दावों के बीच अखबारों के पाठक संख्या में न सिर्फ दिन प्रतिदिन इजाफा हो रहा है बल्कि इसकी साज सज्जा, ले आउट, प्रस्तुतिकरण और कंटेट में भी तेजी से निखार आता जा रहा है। इंटरनेट के इस युग में अखबार ने भी अपने आप को समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की ठान रखी है। बात चाहे अखबारों के ई- संस्करणों की हो या मार्केटिंग स्ट्रेटजी की, अखबार कहीं भी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे है।

यह प्रेक्टिकल बात है इस पर गौर करने की भी जरूरत है कि मौजूदा समय में अखबार को जो सबसे ज्यादा चुनौती इंटरनेट से मिल रही है और उसी इंटरनेट को भी अखबार ने अपने प्रसार का माध्यम बना लिया है। अखबारों के ई- संस्करण निश्चित तौर पर पर्यावरण के अनुकूल है, वृक्षों की भी बचत हो रही है। बावजूद सभी चुनौतियों के अखबार का वजूद अब भी हमारे देश में बहुत मजबूत है और आने वाले समय में इजाफे की पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। बाजारीकरण के इस दौर में अखबार के सामाजिक दायित्वों और सरोकारों पर मुनाफाखोरी, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, भौतिकवाद, नंबर वन की रेस हावी होती दिख रही है, साथ ही साथ संपादकों पर मार्केटिंग कर्मियों को तबज्जों अस्वस्थ परंपरा की नींव रख रहा है। आज वही छापा जा रहा है जो बिकाऊ है।

एक वरिष्ठ पत्रकार ने अखबारों पर हावी होते बाजारवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि समाचार वो है जो विज्ञापन की पीठ लिखा जाता है। कुछ को छोड़कर सभी अखबार बड़े बड़े कॉर्पोरेट घरानों के व्यवसायिक प्रतिष्ठान है जो उनके कई अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के साधन मात्र भी है। कई अखबार सिर्फ स्कीमों के दम पर बिक रहे हैं। साल भर के लिए अखबार की बुकिंग दीजिए तो एक झोला गिफ्ट में साथ मिलेगा जिसकी कीमत साल भर के अखबार की कीमत से अधिक बताई जाती है। मार्केटिंग का गणित, मार्केटिंग वाले इस तरह पाठक (याने कि उपभोक्ता) को समझाते है कि कीमत के एवज में झोला पाआ॓, रद्दी बेच कर मुनाफा कमाआ॓, फ्री में अखबार पढ़ो। ये केवल इस लिए की अखबार आपको अपनी ओर आकर्षित कर सके और आप कहीं और ना भटके ....

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