मंगलवार, 28 मई 2013

आईपीएल : किरदार बदले पर हालात नहीं

आईपीएल यानी इंडियन प्रीमियर लीग, जिसके छह साल के करतब ने दो शख्सीयतों को पहचान दिलायी और साथ ही उनकी मिट्टी भी पलीद कर दी। इस दौरान कई परिवर्तन भी हुए लेकिन हालात अब भी वैसे के वैसे हैं। आईपीएल अपने विवादों को पिटारे के साथ एक बार फिर अपने इतिहास को दोहराने की हद पर आ गया है। अब देखना है कि क्या ललित मोदी का सा हाल एन. श्रीनिवासन का भी होगा या फिर वह खुद को बलि होने से बचा लेंगे।
याद होगा कि किस तरह कुछ विवादों के बीच अधिकारी तो बदले गये लेकिन हालात में परिवर्तन नहीं किया गया या नहीं हुआ। बात 25 अप्रैल 2008 की, जिस दिन मुंबई में दो मैच हो रहे थे। एक ओर डीवाइ पाटिल स्टेडियम में मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच आइपीएल-3 का फाइनल मैच खेला जा रहा था, तो दूसरी ओर मुंबई के क्रिकेट सेंटर में बोर्ड के अधिकारी ललित मोदी की पारी खत्म करने की तैयारी कर रहे थे। डीवाइ पाटिल स्टेडियम में आखिरी गेंद फेंके जाने के चंद घंटे बाद बीसीसीआई का एक
ई-मेल आया और ललित मोदी को आईपीएल कमिश्नर पद से निलंबित कर दिया गया। पांच साल बाद इतिहास खुद को दोहरा रहा है। कोलकाता के ईडन गार्डन में एक ओर मुंबई इंडियंस और चेन्नई सुपरकिंग्स के बीच फाइनल मैच खेला गया (जिसमें मुंबई जीत गयी)
, तो दूसरी ओर एन. श्रीनिवासन को बीसीसीआई मुखिया पद से हटाने के लिए रोडमैप तैयार हो रहा है।
वर्ष 2008 में ललित मोदी पर चौतरफा दबाव बनाया जा रहा था कि वे नैतिक जिम्मेवारी लेकर पद से इस्तीफा दे दें, लेकिन मोदी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। अब 2013 में एन. श्रीनिवासन पर भी ऐसा ही दबाव है, देखना ये है कि क्या वो खुद इस्तीफा देते हैं, या फिर ललित मोदी के रास्ते पर चलते हैं। पांच साल में किरदार ललित मोदी से बदल कर एन. श्रीनिवासन हो गये हैं लेकिन इस बीच बोर्ड की राजनीति में कुछ नहीं बदला है। अगर फ्लैश-बैक में जाएं, तो वही टीम ओनरशिप में गड़बड़ियों की बातें, सट्टेबाजी से लेकर मैच फिक्सिंग के आरोप और बीसीसीआई आकाओं की वही जिद कि वे किसी कीमत पर अपनी कुर्सी को नहीं छोड़ेंगे।      
आइपीएल की जो नींव रखी गयी थी, उसमें मूलभूत दिक्कतें थी। 2008 में सभी ऐसे मामलों को एक-एक कर दबा दिया गया। सवाल ये हैं कि क्या 2013 में ऐसे ही एन श्रीनिवासन को हटा दिये जाने के बाद बाकी सभी फाइलें बंद कर दी जाएंगी? क्या आइपीएल में सुधार की जरूरतों की अनदेखी की जायेगी? क्या जांच एजेंसियों और कानून में बदलाव की बात को एक बार फिर से भुला दिया जायेगा? अगर ऐसा होता है, तो ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बाद हम फिर से 3-4 साल बाद एक ऐसे ही किरदार का इंतजार करेंगे और भारतीय क्रिकेट एक बार फिर ऐसी घटनाओं से शर्मसार होगा।
बहरहाल, एन श्रीनिवासन के दामाद मयप्पन पर पुलिस का शिकंजा जैसे-जैसे कसता गया, बोर्ड के अधिकारी हरकत में आ गये। दिल्ली में बोर्ड के दो बड़े अधिकारी राजीव शुक्ला और अरुण जेटली परदे पर तो मैच फिक्सिंग को लेकर नये कानून के सिलसिले में पहले कानून मंत्री कपिल सिब्बल और खेल मंत्री भंवर जीतेंद्र सिंह से मिले, लेकिन परदे के पीछे श्रीनिवासन की बढ़ती मुश्किलों पर चर्चा और बातचीत के दौर जारी रहे- कैसे श्रीनिवासन को इस्तीफा देने के लिए मनाएं, कैसे श्रीनिवासन पर दबाव बढाया जाये, क्या हो वैकल्पिक व्यवस्था। भाजपा नेता अरुण जेटली से लेकर पूर्व अध्यक्ष शशांक मनोहर के नाम पर चचार्एं जारी हैं।
बीसीसीआई संविधान के नियम 15(5) का भी हवाला दिया जा रहा है कि मौजूदा बोर्ड अध्यक्ष को अगर हटाया जाता है, तो उसी जोन का कोई अधिकारी बोर्ड अध्यक्ष बने। लेकिन इससे पहले बोर्ड में परंपरा रही है कि दूसरे जोन के व्यक्ति का भी नाम कोई और जोन प्रस्तावित कर सकता है। शशांक मनोहर, अरुण जेटली या फिर कोई और, बीसीसीआई का अगला मुखिया कौन बनेगा, ये तो आने वाले दिनों में तय हो जायेगा, लेकिन सबसे अहम सवाल है कि क्या पुलिस हिरासत, कोर्ट-रूम से लेकर बोर्ड-रूम तक का ड्रामा खत्म होगा? इसे जानने के लिए ललित मोदी और एन श्रीनिवासन के बीच समानता को समझना जरूरी है।
2008 में जब ललित मोदी का आइपीएल से पत्ता साफ हुआ, तो उन्हें हटाने के अभियान में अहम किरदारों में एक एन श्रीनिवासन रहे। ललित मोदी ने तमाम नियमों को धता बताते हुए जब आइपीएल मॉडल को साकार कर दिखाया, तो बोर्ड के बड़े अधिकारी चुप्पी साधे रहे। इंडियन प्रीमियर लीग जैसे-जैसे कामयाब होता चला गया, ललित मोदी का रुतबा बढ़ता चला गया। आखिरकार जब मोदी के खिलाफ मामला खुला, तो सभी लामबंद हो गये। सवाल ये है कि बोर्ड के बड़े नाम उस वक्त क्यों चुप रहे, जब मोदी गलतियों की बुनियाद पर आइपीएल की नींव रख रहे थे? चलो माना कि एक बार गलती हो गयी लेकिन श्रीनिवासन के मामले में भी ये गलतियां कैसे दोहरायी गयीं? वे चुप क्यों रहे, जब बोर्ड के इस नियम की धज्जीयां उड़ायी गयी कि बोर्ड का मौजूदा अधिकारी बोर्ड से संबंधित किसी प्रॉफिटेबल वेंचर में शामिल नहीं हो सकता, यानी आइपीएल टीम नहीं खरीद सकता है?
बोर्ड अधिकारी तब क्यों चुप रहे, जब कोर्ट में श्रीनिवासन के खिलाफ कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट यानी हितों में टकराव का मुद्दा आया और श्रीनिवासन ने टीम को अपने रिश्तेदार या करीबी के नाम कर दिया, आरोप के मुताबिक वो करीबी मयपन्न थे। वे चुप क्यों रहे, जब कथित तौर पर चेन्नई सुपरकिंग्स को फायदा पहुंचाने के लिए अंपायरों को बदले जाने और ऑक्शन में धांधली की खबरें आयीं? वे चुप क्यों रहे जब आइपीएल में एक टीम के मालिक बोर्ड के मुखिया थे, बोर्ड का ब्रैंड एंबेसडर के श्रीकांत टीम के चीफ सेलेक्टर थे और उनका बेटा अनिरुद्ध श्रीकांत उसी टीम से खेल रहा था? वे चुप क्यों रहे, जब तेलंगाना विवाद की वजह से हैदराबाद के मैच तो डेक्कन चार्जर्स से छीन लिये गये, लेकिन श्रीलंका के क्रिकेटरों के खेलने पर मनाही के बावजूद चेन्नई में चेन्नई सुपरकिंग्स के मैच कराये गये?
सवाल यहीं खत्म नहीं होते। वे चुप क्यों थे जब आइसीसी एंटी करप्शन यूनिट से लेकर फेडेरेशन ऑफ इंटरनेशनल क्रिकेटर्स एसोसिएशन ने आइपीएल समेत प्राइवेट लीग में मैच फिक्सिंग का अंदेशा जताया और इसे रोकने के लिए मजबूत प्रतिक्रिया अपनाये जाने का सुझाव दिया? वे चुप क्यों रहे जब टिम मे को चुना गया और फिर धमकी देकर दोबारा चुनाव करा कर श्रीनिवासन के लिए रास्ता साफ किया गया? इसे देश की राजनीति चलानेवाले लोगों की लापरवाही समझी जाये, या फिर जानबूझ कर की गयी अनदेखी, यह सबसे अहम सवाल है।      
16 मई से लेकर 25 मई, 2013 तक की घटनाओं ने भारतीय क्रिकेट को कलंकित किया है। वर्ष 2000 के बाद पहली बार किसी अंतरराष्ट्रीय भारतीय क्रिकेटर का नाम न सिर्फ फिक्सिंग में आता है, बल्कि उसे गिरफ्तार भी किया जाता है।। राजस्थान रॉयल्स के डगआउट में बैठनेवाला एक क्रिकेटर अमित सिंह बुकी बन जाता है और अंतरराष्ट्रीय पैनल का एक अंपायर असद रऊफ संदेह के दायरे में होने की वजह से चैंपियंस ट्रॉफी से हटाये जाते हैं। जैसे ये काफी नहीं, जांच का दायरा आगे बढ़ते हुए, बोर्ड के मुखिया के दामाद तक पहुंच जाता है। वो दामाद मामूली व्यक्ति नहीं, बल्कि आइपीएल-6 के फाइनल मैच से पहले तक आइपीएल की नंबर एक टीम के सर्वेसर्वा होते हैं। क्रिकेट का अपना एक इतिहास है, एक विरासत है और अपनी एक भाषा है।
अगर कोई किसी भी विधा में पहले कोई गलती करता, तो लोग कहते- दिस इज नॉट क्रिकेट (यह क्रिकेट नहीं है)। 1983 से लेकर 2013 तक क्रिकेट ने लार्डस की बालकोनी से मुंबई के क्रिकेट सेंटर तक का फासला किया। क्रिकेट का आर्थिक सुपरपावर होने की वजह से भारत की जिम्मेवारी बढ़ जाती है। क्या जब विश्व क्रिकेट की चाबी हमारे हाथों में है, तो लोग कहेंगे- डोंट बी लाइक क्रिकेट एंड क्रिकेटर्स (क्रिकेट और क्रिकेटर्स की तरह मत बनो)। यह बात खेल के लिए ही नहीं बल्कि इस खेल में सुपर पॉवर बन कर उभरे भारत के लिए भी शर्म की बात है।


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