भारतीय संस्कृति में त्यौहार
सिर्फ औपचारिक अनुष्ठान मात्र नहीं हैं, बल्कि जीवन
का एक अभिन्न अंग हैं। त्यौहार जहाँ मानवीय जीवन में उमंग लाते हैं वहीं
पर्यावरण संबंधी तमाम मुद्दों के प्रति भी किसी न किसी रूप में जागरूक करते हैं।
सूर्य देवता के प्रकाश से सारा विश्व ऊर्जावान है और इनकी पूजा जनमानस को भी
क्रियाशील,
उर्जावान और जीवंत बनाती है। भारतीय संस्कृति में दीपावली
के बाद कार्तिक माह के दूसरे पखवाड़े में पड़ने वाला छठ पर्व मूलतः भगवान सूर्य को
समर्पित है। यह त्यौहार इस अवसर पर प्रत्यक्ष देव भगवान सूर्य नारायण की पूजा की
जाती है। आदित्य हृदय स्तोत्र से स्तुति करते हैं, जिसमें बताया गया है कि ये ही भगवान सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, शिव,
स्कन्द, प्रजापति, इन्द्र, कुबेर, काल,
यम,
चन्द्रमा, वरूण हैं तथा पितर
आदि भी ये ही हैं।
छठ पर्व सूर्य की उपासना का पर्व
है। वैसे भारत में सूर्य पूजा की परम्परा वैदिक काल से ही रही है। सूर्य अर्थात
सविता की संचित शक्ति का रूप षष्ठी देवी हैं जिन्हें छठी मइया से संबोधित किया
जाता है। सविता की शक्तियाँ ही सावित्री और गायत्री माँ हैं– जिनसे जीवन की सृष्टि और पालन होता है। सावित्री के पश्चात
जीवों के पालन हेतु षष्ठी के दिन ही माँ गायत्री प्रक़ट हुईं। विश्वामित्र ऋषि के
मुख से गायत्री मंत्र षष्ठी के दिन ही प्रष्फूटित हुआ था।
पर्व के प्रारम्भिक चरण में
प्रथम दिन व्रती स्नान कर के सात्विक भोजन ग्रहण करते हैं, जिसे ‘नहाय खाय‘ कहा जाता है। वस्तुतः यह व्रत की तैयारी के लिए शरीर और मन
के शुद्धिकरण की प्रक्रिया होती है। सुबह सूर्य को जल देने के बाद ही कुछ खाया
जाता है। लौकी की सब्जी और चने की दाल पारम्परिक भोजन के रूप में प्रसिद्ध है।
दूसरे दिन सरना या लोहण्डा व्रत होता है, जिसमें दिन भर
निर्जला व्रत रखकर शाम को खीर रोटी और फल लिया जाता है। इस दिन नमक का प्रयोग तक
वर्जित होता है। तीसरा दिन छठ पर्व में सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या अर्घ्य
में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर
महिलाएँ घरों में ठेकुआ,
पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की
सजावट आदि में जुटते हैं और सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा
हो जाते हैं।
सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते
हैं तो महिलायें पानी में खड़े होकर अर्घ्य देती हैं। अर्घ्य देने के लिए सिरकी
के सूप या बाँस की डलिया में पकवान, मिठाइयाँ, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर
सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है- ऊँ ह्रीं षष्ठी देव्यै स्वाहा।
इसके बाद महिलाएँ घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके
उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। इसे कोसी भरना कहते हैं। निर्जला व्रत
जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अन्तिम एवं चौथे
दिन सूर्योदय अर्घ्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन
आरम्भ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही सूर्यदेव को गाय के कच्चे दूध
से अर्घ्य दिया जाता है एवं इसके बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं। प्रसाद
लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं।
सूर्य की कठिन साधना और तप के इस
पर्व में दुख और संकट के विनाश के लिए सूर्य का आह्वान किया जाता है। इस पर्व के
संबंध में कई कहानियां प्रचलित हैं। एक कथा यह है कि लंका विजय के बाद जब भगवान
राम अयोध्या लौटे तो दीपावली मनाई गई। जब राम का राज्याभिषेक हुआ, तो राम और सीता ने सूर्य षष्ठी के दिन तेजस्वी पुत्र की
प्राप्ति के लिए सूर्य की उपासना की। एक प्रसंग यह भी है कि पाण्डवों का वनवास
सफलपूर्वक कट जाय इसके लिए भगवान श्री कृष्ण ने कुंती को षष्ठी देवी के अनुष्ठान
करने का परामर्श दिया था। शकुनि के प्रपंच से जब पाण्डवों ने अपना सब कुछ खो दिया
था, तो धौम्य ऋषि ने द्रोपदी से षष्ठी देवी की पूजा करवायी थी।
मूलतः बिहार और पूर्वी उत्तर
प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोक रंजकता के चलते न सिर्फ
भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिडाड, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैण्ड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों
द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला
अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना
की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती होती है और न कोई आडम्बर
युक्त कर्मकाण्ड। छठ पर्व मूलतः महिलाओं का माना जाता है, जिन्हें पारम्परिक शब्दावली में ‘परबैतिन‘ कहा जाता है। पर छठ
व्रत स्त्री-पुरूष दोनों ही रख सकते हैं।
कष्टों से उबरने की लिए, संतान प्राप्ति के लिए, परिवार के
कल्याण के लिए काफी विधि-विधान के साथ छठ मइया की पूजा की जाती है। कठिन उपवास के
साथ अस्ताचलगामी सूर्य को और उगते सूर्य
को गंगा में या जैसी सुविधा हो , तालाब, पोखर ,कुंआ ,या घर के आँगन में जल या दूध का अर्घ्य देकर और सूप में
विभिन्न प्रकार के फलों एवं ठेकुआ का प्रसाद अर्पण कर छठ मइया की पूजा की जाती है
। वर्ती का चरण-स्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। महिला वर्ती के
हाथों से सुहागिन अपने माँगों में सिंदूर भरवातीं हैं और अखंड सौभाग्यवती होने का
आशीर्वाद प्राप्त करती हैं।
भारतीय संस्कृति में समाहित पर्व
अन्ततः प्रकृति और मानव के बीच तादात्म्य स्थापित करते हैं। इस दौरान लोक सहकार
और मेल का जो अद्भुत नजारा देखने को मिलता है, वह पर्यावरण
संरक्षण जैसे मुद्दों को भी कल्याणकारी भावना के तहत आगे बढ़ाता है। यह अनायास
ही नहीं है कि छठ के दौरान बनने वाले प्रसाद हेतु मशीनों का प्रयोग वर्जित है और
प्रसाद बनाने हेतु आम की सूखी लकड़ियों को जलावन रूप में प्रयोग किया जाता है, न कि कोयला या गैस का चूल्हा। वस्तुतः छठ पर्व सूर्य की
ऊर्जा की महत्ता के साथ-साथ जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को भी संजोता है।
छठ पर्व की परंपरा में वैज्ञानिक
और ज्योतिषीय महत्व भी छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि एक विशेष खगोलीय अवसर है, जिस समय धरती के दक्षिणी गोलार्ध में सूर्य रहता है और
दक्षिणायन के सूर्य की पराबैंगनी किरणें धरती पर सामान्य से अधिक मात्रा में
एकत्रित हो जाती हैं क्योंकि इस दौरान सूर्य अपनी नीच राशि तुला में होता है। इन
दूषित किरणों का सीधा प्रभाव जनसाधारण की आंखों, पेट,
स्किन आदि पर पड़ता है। इस पर्व के पालन से सूर्य प्रकाश की
इन पराबैंगनी किरणों से जनसाधारण को हानि ना पहुंचे, इस अभिप्राय से सूर्य पूजा का गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है। इसके साथ ही घर-परिवार
की सुख-समृद्धि और आरोग्यता से भी छठ पूजा का व्रत जुड़ा हुआ है। इस व्रत का मुख्य
उद्देश्य पति,
पत्नी, पुत्र, पौत्र सहित सभी परिजनों के लिए मंगल कामना से भी जुड़ा हुआ
है। सुहागिन स्त्रियां अपने लोक गीतों में छठ मैया से अपने ललना और लल्ला की
खैरियत की ख्वाहिश जाहिर करती हैं।
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