मंगलवार, 19 जुलाई 2011

दिल-ए-हालत...

"ये कैसा महोब्बत का सफ़र देख रहा हूँ,
ना है मंजिल ना कोई राहे गुजर देख रहा हूँ !

टूटेगा दिल ये इश्क में हर बार की तरह,
में खुद को आजमा के मगर देख रहा हूँ !

यूँ मरने का मैं इतना शौकीन तो ना था,
मोहब्बत का मगर खुद पे असर देख रहा हूँ !

इस बार भी दुश्मन से खायी हैं गालियाँ,
कुछ ऐसा शराफत का असर देख रहा हूँ !

माना कि वो बेमरव्वत मुझे रखता हैं गैरों में,
मैं उसको अपना कह के मगर देख रहा हूँ !...."

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