रविवार, 31 जुलाई 2011

मोहम्मद रफ़ी : वो जब याद आये, बहुत याद आये......

सुरों के सरताज मोहम्मद रफ़ी की रविवार ३१ जुलाई को पुण्यतिथि है। हर रोज गूंजती है टीवी या रेडियो पर उनकी आवाज और विश्वास नहीं होता कि उनको हमसे बिछड़े हुए इतने साल बीत गए। आज सशरीर वे भले हमारे बीच न हों लेकिन मोहब्बत हो या जुदाई, भजन हो या कव्वाली, शादी हो या विदाई, जीवन का कोई ऐसा मौका नहीं जो मोहम्मद रफी की आवाज में घुलकर ये गाने हमारे कानों तक न पहुंचते हों। रफी के गीतों में कर चले हम फिदा जान-ओ-तन साथियो' में देशभक्ति का जोश है तो 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' में भक्ति भाव का समर्पण। फिल्म 'कश्मीर की कली' के मशहूर गीत 'तारीफ करूं क्या उसकी जिसने तुझे बनाया' में 'तारीफ' शब्द का इस्तेमाल दर्जनों बार किया गया है लेकिन इसे गाते समय मोहम्मद रफी ने हर बार 'तारीफ' शब्द को एकदम अलग-अलग अंदाज में इस तरह गाया है कि मुंह से 'वाह' निकल पड़ता है।

शहंशाह-ए-तरन्नुम कहलाने वाले रफी साहब आज भी लोगों के दिलों में जिंदा है। हिंदी सिनेमा में अपनी आवाज और शोखी के आधार पर अलग पहचान बनाने वाले गायक रफी की कमी आज भी लोगों को खलती है। नये गायकों के लिए रफी साहब के गाने जैसे संजीवनी हो कि जिसे गुनाकर वह संगीत का ककहरा सीख लेंगे। संगीत के पुरोधा कहते हैं.. बॉलवुड में कभी के.एल. सहगल, पंकज मलिक, के.सी. डे समेत जैसे गायकों के पास शास्त्रीय गायन की विरासत थी, संगीत की समझ थी लेकिन नहीं थी तो वो थी आवाज। जिसे रफी ने पूरा किया। सन १९५२ में आई फिल्म 'बैजू बावरा' से उन्होंने अपनी स्वतंत्र पहचान बनायी।

१९६५ में पद्मश्री से नावाजे जा चुके रफी साहब को ६ बार फिल्मफेयर अवार्ड मिल चुका है। उनके गाये गीत.. चौदहवीं का चांद हो, हुस्नवाले तेरा जवाब नहीं, तेरी प्यारी प्यारी सूरत को (ससुराल), ऐ गुलबदन (प्रोफ़ेसर), मेरे महबूब तुझे मेरी मुहब्बत की क़सम (मेरे महबूब), चाहूंगा में तुझे (दोस्ती), छू लेने दो नाजुक होठों को (काजल), बहारों फूल बरसाओ (सूरज), बाबुल की दुआएं लेती जा (नीलकमल), दिल के झरोखे में (ब्रह्मचारी), खिलौना जानकर तुम तो, मेरा दिल तोड़ जाते हो (खिलौना), हमको तो जान से प्यारी है (नैना), परदा है परदा (अमर अकबर एंथनी), क्या हुआ तेरा वादा (हम किसी से कम नहीं ), आदमी मुसाफ़िर है (अपनापन), चलो रे डोली उठाओ कहार (जानी दुश्मन), मेरे दोस्त किस्सा ये हो गया (दोस्ताना), दर्द-ए-दिल, दर्द-ए-ज़िगर (कर्ज), मैने पूछा चांद से (अब्दुल्ला).. आज भी बजते हैं तो लोग उनकी आवाज में खो जाते हैं।

गौरतलब है कि पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित रफी का जन्म २४ दिसंबर १९२४ को हुआ था और ३१ जुलाई १९८० के दिन मुंबई में दिल का दौरा पढने से उनका निधन हो गया। आज भले ही रफी जी दुनिया में ना हो पर उनके गानों और आवाज के बलबूते वो हर पल लोगों की दिलों में संगीत लहरी के तौर पर जिंदा रहेंगे। बरसों पहले जब उन्होंने गीत ‘तुम मुझे यूँ भूला ना पाओंगे...' गाया होगा तो नहीं सोचा होगा ये गीत केवल शब्द नहीं बल्कि भविष्य की सच्चाई को बयां कर रही है। वाकई संगीत के प्रशंसक आज भी मोहम्मद रफी को उनके गाये गानों में तलाशते हैं।

(पुण्यतिथि पर विशेष...)

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