शुक्रवार, 2 मार्च 2012

सरोगेसी मातृत्व की विश्व राजधानी को तौर पर बदनाम भारत

नई दिल्ली, 02 मार्च (हि.स.)। भारत सरोगेसी मातृत्व की विश्व राजधानी के तौर पर दुनिया भर में बदनाम हो रहा है। तेजी से प्रजनन पर्यटन का प्रमुख केन्द्र बनने के चलते इस बात की बहुत सख्त जरूरत है कि सरोगेट माताओं के अधिकारों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किया जाये। साथ ही इस संबंध में कानून बना कर देश भर में तेजी से पनपते ’असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी’ क्लीनिकों को नियम-कायदों के दायरे में लाया जाए। यह कहना है जैंडर विषय पर काम करने वाले अग्रणी स्वैच्छिक समूह सेंटर फॉर सोशल रिसर्च का।

शुक्रवार को सीएसआर ने ’सरोगेसी मातृत्व: नैतिक या व्यावसायिक’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी की जो गुजरात में किए गए अध्ययन पर आधारित है। सीएसआर की निदेशक और जानी मानी महिला कार्यकर्ता डॉ. रंजना कुमारी ने सरकार से आग्रह किया कि एआरटी 2010 बिल को अविलम्ब पास किया जाए। इससे अपनी कोख को समर्पित करने वाली महिलाओं को सामाजिक, भावनात्मक और आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेगी, क्योंकि अपनी आजीविका को स्थिर रखने के लिए उन्हें गंभीर मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ता है।

रिपोर्ट के माध्यम से डा. रंजना ने स्पष्ट तौर पर परिभाषित कानून की आवश्यकता पर बल दिया, जो सरोगेसी के बारे में भारतीय सरकार के विचार को विस्तार में प्रकट करे, ताकि सरोगेट माताओं के होने वाले शोषण को रोका जा सके। रिपोर्ट का यह भी कहना है कि सरोगेसी शिशु का नागरिक अधिकार भी अति महत्व का विषय है और इसमें पूछा गया है कि, भारतीय सरकार को सरोगेट शिशु को भारतीय नागरिकता देने के मामले में कदम उठाना होगा क्योंकि वह भारतीय (सरोगेट माता) कोख से भारत में जन्म लेता है। रिपोर्ट के मुताबिक, सरोगेट माता और बच्चे दोनों का स्वास्थ्य बीमा होना चाहिए ताकि वे एक सेहतमंद जीवन जी सकें।

रिपोर्ट मे यह भी खुलासा हुआ है कि पिछले कुछ सालों में किस प्रकार सरोगेसी बढ़ी है और क्यों भारत अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल पर्यटकों के लिए पसंदीदा स्थल बनता जा रहा है। सीएसआर में अनुसंधान की प्रमुख एवं इस रिपोर्ट की मुख्य लेखिका सुश्री मानसी मिश्रा ने कहा, ‘सस्ती चिकित्सा सुविधाएं, उन्नत प्रजनन तकनीकी जानकारी के साथ निर्धन सामाजिक-आर्थिक स्थितियां तथा भारत में नियामक कानूनों की कमी; ये सब मिलकर भारत को एक आकर्षक विकल्प बना देते हैं।’ यह रिपोर्ट सरोगेट माताओं के अधिकारों और देश भर में गैरकानूनी असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी (एआरटी) क्लीनिकों के मुद्दे उठाती है। इसमें सवाल उठाए गए हैं कि क्या सरोगेट मातृत्व को नियमित करना चाहिए और यदि हां, तो किस तरीके से। यदि नियमन के संबंध में किसी अनुबंध पर पहुंचा जा सके, तो भी प्रश्न बना रहता है कि क्या उन मापदंडों को कायम रखा जा सकेगा।

सरोगेसी के इंतजाम के विषय पर सीधे तौर पर कानून होना चाहिए जिसमें तीनों पार्टियां शामिल हों, यानीः सरोगेट मदर, माता-पिता और बच्चा। सरोगेट माताओं के लिए अधिकार-आधारित कानूनी ढांचे की जरूरत है क्योंकि आईसीएमआर के दिशानिर्देश काफी नहीं हैं। डॉ. कुमारी ने कहा। उनका कहना था कि असिस्टेड रिप्रोडक्टिव टैक्नोलॉजी (रेगुलेशन) बिल को तुरंत पास करने की जरूरत है जिसका लक्ष्य सरोगेट माता और बच्चे के अधिकारों की रक्षा करना है। सरोगेसी व्यवस्था से जो कारोबार हो रहा है उसका अनुमानित आंकड़ा 500 मीलियन डॉलर है और सरोगेसी के मामले तेजी से बढ़ते जा रहे हैं। इस संबंध में सटीक भारतीय आंकड़ें ज्ञात नहीं हैं लेकिन जांच से पता लगा है कि पिछले कुछ सालों में यह काम दोगुना हो चुका है।

गोरी, शिक्षित और युवा औरतों की मांग लगातार बढ़ रही है जो विदेशी दंपतियों के लिए सरोगेट माता का काम कर सकें। अक्सर दंपतियों को अपनी बारी के लिए आठ महीनों से लेकर एक साल तक प्रतीक्षा करनी होती है। आम तौर पर छोटे शहरों की महिलाओं को इस आउटसोर्सिंग प्रेग्नेंसी के लिए चुना जाता है। आणंद, सूरत, जामनगर, भोपाल व इंदौर ऐसे शहर हैं जहां भारतीय तथा विदेशी दंपति बच्चे की चाहत में यात्राएं करते हैं।

सरोगेसी की औसत लागत 10,000 से 30,000 डॉलर के बीच है जिसमें शामिल होते हैं : सरोगेट माता का पारिश्रमिक, आईवीएफ का खर्च, भोजन व उपभोज्य वस्तुएं, कानूनी व डॉक्टर की फीस, प्रसव व्यय एवं प्रसव पूर्व देखभाल का खर्चा। अंतर्राष्ट्रीय मेडिकल पर्यटकों के लिए यह लागत बहुत ही किफायती है जिस वजह से वे अधिक से अधिक संख्या में भारत आ रहे हैं। किंतु जो महिला वास्तव में अपनी कोख समर्पित करती है वह न्यायपूर्ण मुआवजे़ से वंचित रह जाती है। बिचौलिए, मैडिकल क्लीनिक और वकील अधिकांश पैसा ले जाते हैं- इस रिपोर्ट के मुताबिक सरोगेसी के लिए जो 12 से 15 लाख रुपए दिए जाते हैं उसमें से सरोगेट माता को मात्र 1-2 प्रतिशत ही मिलता है।

गौरतलब है कि यह रिपोर्ट कई परेशान कर देने वाले तथ्यों को भी उद्घाटित करती है। उदाहरण के लिए, कई बार पति इस बात पर ऐतराज नहीं करता की उसकी पत्नी सरोगेसी के लिए जाए लेकिन जब बच्चे के जन्म के बाद औरत घर लौटती है तो उसका पति व बच्चे उससे दूरी बना लेते हैं। इन मामलों में क्लीनिकों की भूमिका भी संदेहास्पद है। सरोगेसी अनुबंध सरोगेट माता (उसके पति सहित) कमीशनिंग माता-पिता और फर्टिलिटी चिकित्सक के बीच होता है, लेकिन क्लीनिक इस विषय से अपने को दूर रखते हैं ताकि उन्हें किसी कानूनी झंझट में न पड़ना पड़े। इस बारे में कोई तयशुदा नियम नहीं है कि सरोगेट माता को कितना मुआवज़ा दिया जाएगा, यह रकम क्लीनिक मनमाने ढंग से तय करते हैं। आम चलन यह है कि सरोगेट शिशु के कमीशनिंग माता-पिता कुल जितना धन देते हैं उसका 1-2 प्रतिशत ही सरोगेट माता को दिया जाता है। इस रिपोर्ट ने खुलासा किया।

हिन्दुस्थान समाचार/02.03.2012/आकाश।

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