मंगलवार, 27 मार्च 2012

कुछ कहीं-अनकही..

"रात सुनती रही मैं सुनाता रहा,
दर्द की दास्तां मैं बनाता रहा।

लोग लोगों से चाहत निभाते रहे,
एक वो था मेरा दिल जलाता रहा।

धूप छांव सी उसकी तबीयत रही,
वो निगाहें मिलाता चुराता रहा।

दिल के मेहमान खाने में रौनक रही,
कोई आता रहा, कोई जाता रहा।

साथियों ने भी सारा माजरा समझ लिया,
मैं जो नाम तेरा लिखता मिटाता रहा।

एक मैं ही प्यासा रहा दोस्तों,
लोग पीते रहे मैं पिलाता रहा।"

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