सोमवार, 19 मार्च 2012

सच्चाई की कीमत तो चुकानी ही पड़ती है...

पत्रकारों को सच सामने लाने के लिए जोखिम उठाने पड़ते हैं और इस सच की कीमत भी चुकानी पड़ती है। यह सच और झूंठ की मुठभेड़ है जो अनादिकाल से चली आ रही है तथा अपने-अपने मोर्चे पर बोलकर अथवा लिखकर हर दौर में नारद से लेकर गांधी तक महान लोगों ने समाज में बदलाव की लहर लाने का काम किया। इस काम में साहित्कारों की भूमिका भी सराहनीय रही है, जिन्होंने कलम के सिपाही के तौर पर निरन्तर अपनी लेखनी की कीमत चुकाते हुए नई पीढ़ी के लिए मार्ग प्रशस्तिकरण का काम करते रहे।

आज के समय में भी कलम के इन सिपाहियों यानि की देश के चौथे स्थम्भधारी मीडिया वालों पर देश और समाज की दशा और दिशा के बारे में विचार कर उसके लिए बेहतर विकल्प तलाशने का काम है। ऐसे में पत्रकार अपनी ईमानदारी और कलम के जोर पर ही समाज के प्रति अपनी संवेदनाओं को अक्षरों के रुप में उकेरने का काम करता है। एक पत्रकार सबके सुख-दु:ख लिखता है लेकिन अपनी कहानी कभी नहीं कहता। वह राष्ट्र की संस्कृति और समाज बनाता है और इतिहास व समय के पैमाने को बदलता जाता हैं। ऐसे में ज्ञान की वंश परम्परा में साहित्यकार और पत्रकार को दो जुड़वां भाईयों की संज्ञा देना गलत ना होगा। जहां साहित्यकार शाश्वत की खोज करता है वहीं पत्रकार वर्तमान का अन्वेषण करता है। सूचना और प्रोद्योगिकी के युग से पहले भी वह स्वतंत्रता सेनानियों की जय बोलता था और आज भी वह पिछड़े और वंचितों से साथ ही जीता है। यही कारण है कि शब्द कभी मरता नहीं है, वह स्वयं ही अपना रास्ता बनाता है। साहित्यकार और पत्रकार की जुगलबंदी अनन्तकाल से आततायी और शोषण की व्यवस्था से लड़ती-मरती आई है तथा सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक असहमतियों के चक्रव्यूह में अभिमन्यु की भूमिका अदा करती है।

स्मरणीय हो कि मानव समाज और समय के कुरूक्षेत्र में जिस शब्द और वाणी का आधार सत्य और अहिंसा रही है, वही कलम सामाजिक क्रांति के लिए परिवर्तन की जननी मानी गयी है। यानि कि उपनिवेशवाद से लेकर आज पूंजीवाद तक तानाशाही और लोकतंत्र में सच्ची कलम विपक्ष की आवाज बनकर ही चली है। दुनिया भर में दूसरे विश्वयुध्द के बाद जो क्रांतिकारी बदलाव आये हैं, उसमें आम जनता की आवाज को आगे बढ़ाने का काम साहित्यकारों तथा पत्रकारों ने ही किया है। वैसे मूल तौर पर पत्रकारिता का विकास तो उस युग से माना जायेगा जब यूरोप में ओद्योगिक क्रांति के बाद जब से छापाखने की परिकल्पना सामने आई। भारत के संदर्भ में देखें तो पत्रकारिता का उदय अंग्रेजों के भारत आने के पूर्व मुगलकाल में ही हो गया था। पहले प्रचार-प्रसार सीमित था लेकिन जैसे-जैसे तकनीक का और कागज का आविष्कार हुआ हमारे लोक जीवन में शब्द और वाणी के प्रभाव सभी दिशाओं में फैलने लगे। साहित्य की इन्हीं सीमाओं को तोड़ने का काम आज पत्रकारिता कर रही है तथा सूचना और प्रोद्योगिकी की इस २१वीं सदी में पत्रकारिता ने पारदर्शिता के नए रास्ते भी खोल दिए हैं।

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रुप में प्रचलित वर्ष १८५७ की क्रांति में इस सूचना और समाचार की ताकत ने जबर्दस्त काम किया है। आज प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडीया ने देश और समाज में जो अग्रणी हस्तक्षेप और सवाल खड़े किये हैं, उसी का परिणाम है कि मीडिया अब विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बाद चौथे स्तम्भ अर्थात् खबरपालिका के रूप में स्थापित हो गया है। स्थितियों में बदलाव इस तरह से आया है कि पहले जहां सूचना का खुलासा करने वालों को भेदिया कहकर मार दिया जाता था, जहर का प्याला पिला दिया जाता था, हाथी के पांवो से कुचल दिया जाता था या फिर तोप के मुँह पर बांधकर उड़ा दिया जाता था। वही काम आज लोकतंत्र में राजनैतिक और आर्थिक गिरोहों तथा माफियाओं के द्वारा किया जाता है यानि कि उनके हितों के लिए बोलने और लिखने वाले को रास्ते का काँटा समझकर साफ किया जाता है।

समझने की बात यह है कि आज जब राजनीती का अपराधीकरण हो गया है, जातिवाद और सम्प्रदायवाद जिस तरह सत्ता-व्यवस्था में घुस गया है तथा आर्थिक शक्तियां जिस तरह समानान्तर सरकार जैसी संगठित बन गई है तब से सच की खोज करने वाला पत्रकार इन समाज विरोधी ताकतो के निशाने पर आ गया है। आजादी के बाद और लोकतंत्र के विकास में जब पत्रकारिता और मीडिया एक सूचना उद्योग का रूप ले चुके है तब से शब्द और सूचना की सत्यता ही सबसे अधिक हिंसा और अपराध का शिकार हो रही है। आज भारत में ही विभिन्न भाषाओं की कोई ८० हजार पत्र-पत्रिकाएं निकल रही हैं और करीब ७०० से अधिक टीवी चैनल रात-दिन चल रहे है। ऐसे में राजनैतिक और आर्थिक ताकतों की सारी कवायद मीडिया को अपने नियंत्रण में रखने की हो रही है। यह शक्तियां साम, दाम, दण्ड व भेद से मीडिया पर अपना आधिपत्य जमाने में लगी हैं। इस रास्ते में बाधा बन रहे पत्रकारों और लेखकों को अपनी राह का रोड़ा समझकर मारती-डराती रहती है।

शब्द और सत्य पर आक्रमण की यह कहानी १९९० के भूमंडलीकरण और खुले बाजार की अर्थव्यवस्था में बहुत अधिक सक्रिय हो गई है। तानाशाही और अधिनायकवादी शासन व्यवस्थाओं में यह हमले अधिक है लेकिन भारत जैसे उदार लोकतंत्र में पत्रकार और मीडिया पर सबसे अधिक कातिलाना हमले राजनीती और आर्थिक जगत से जुड़े घराने ही करा रहे हैं। जहां-जहां मीडीया का प्रभाव समाज में बढ़ रहा है, वहां-वहां भेद खोलने वाले और खोजी पत्रकारिता के नायकों पर हमले अधिक हो रहे है। संक्षिप्त में एक मीडियाकर्मी और पत्रकार की हत्या समय और समाज के सत्य को दबाने के लिए ही है। पंजाब केसरी के लाला जगत नारायण तथा रमेशचंद्र की हत्या आंतक में की गई तो लेखिका तसलीमा नसरीन को सच लिखने के लिए बांग्लादेश से निर्वासित होना पड़ा। इसी तरह १९७५ के आपातकाल में मीडिया को भारी प्रतिबंध झेलने पड़े ताकि वह सरकार की गलत नीतियों पर जनता की बातों को आगे और प्रचारित-प्रसारित न करें।

यह सब प्रतिरोध और असहमति ही कलम के सिपाही को हिंसा का शिकार बनाती है और हरिशंकर परसाई को भी साम्प्रदायिकता के गुंडो से पिटवाती है। अभी आर्थिक राजधानी मुम्बई में समाचार पत्र मीड डे के पत्रकार ज्योतिर्मय डे की हत्या और पिछले दिनो पाकिस्तान के एक पत्रकार सलीम शहजात की मौत, इसी क्रम का एक उदाहरण है। इसी प्रकार आए दिन हत्या और हमलों की खबरें इस बात की याद दिलाती है कि हर लेखक और पत्रकार को सच लिखने की कीमत चुकानी ही पड़ती है, जो भूत से लेकर भविष्य में भी पूर्णत: सत्य है। ऐसे में कलम के सिपाहियों को जोखिम तो उठाने ही होंगे, तभी तो वह तथ्यों की परख और सच के अन्वेष्ण को सही दिशा दे सकेगा। ऐसे में वह समय दूर नहीं जब कमल के सिपाही सही मायनों में लोकतंत्र के सच्चे रक्षक कहलायेंगे। यह सत्य है कि शायर, सिहं और सपूत सदैव लीक से हटकर अपनी उपस्थिति को दर्ज कराते हैं। कलम का इतिहास भी वही लिखते हैं जो शहीद हो जाते हैं पर बिकते नहीं।

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