मंगलवार, 26 जून 2012

रंग-ए-जिंदगानी


"हर कदम एक जलजला आया, फिर भी मंजिल तक चला आया।
था अंधेरा घना जहां जमाने में, मैं वहां पर दिया जला आया।

उड़ गयी धज्जीयां भी चुप्पी की, मैं अगर फाड़कर गला आया।
ज्वार रोका है कैसे पूछो मत, चांद जब सीने में उतर आया।

लग रही है जमीन जन्नत सी, अर्श का कौन सा तल आया।
वैसे सुबह है कहां मुमकिन, ख्वाब जिस रुप में ढ़ल आया।

कोई उत्सुक नहीं मुझे लेकर, जाने मैं किस लिए उतावला आया।
पायी फूल की चोट कांटो से बढ़कर, आंख में खून छलछला आया।

जी रहा हूँ मौत के जिस वायदे पर, रोज के रोज जो टला आया।
जाने किस दिन हो मिलन उससे, जो ख्वाबों में अक्सर चला आया।"

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