" कल वो सारे ख्वाब नजर आये बहुत,
देख कर जिनको हम पछताये बहुत।
जुस्तजू क्या थी कि बढ़ती ही गयी,
वैसे हमनें अपने पांव फैलाये बहुत।
सामने कुछ भी नजर आता न था,
यूँ तो निगाहों में साये रहे बहुत।
देखने की चाह जब जाती रही,
आंख को मंजर नजर आये बहुत।"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें