“बोझ मेरे मन पर बढ़ा-बढ़ा सा लगता है,
सूनी आँखों में आया सैलाब सा लगता है।
कोई रुठ गया या दिल टूटा सा लगता है,
उससे फिर भी अहसास जुड़ा सा लगता है।
भोर से लेकर शाम तलक वो ही अपना लगता है,
जाने फिर क्यों उससे ही मन उखड़ा मेरा रहता
है।
आज भी उससे रिश्ता अपना पहले जैसा लगता है,
जाने फिर क्यों हरकतें वो अहसानों वाला रखता
है।
डरता हूँ खो ना जाऊ, दुनिया की इस उलझन में,
पर इससे ज्यादा डर उसको खोने का लगता है।
साथ ही था मेरे जो अब खोया-खोया सा रहता है,
कि खुद से अब हर रोज यही गिला सा रहता है।
मिलूंगा उससे भी एक दिन की वो कब तक रुठेगा,
उस एक दिन की ख्वाहिश में जीना बेजार सा लगता
है।”
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