मंगलवार, 9 अगस्त 2011

पूंजी प्रवाह के आगे नतमस्तक 'पत्रकारिता'

लोकतंत्र में पत्रकारिता ही एक ऐसा पेशा है जिसे सामाजिक सरोकारों का सच्चा पहरूआ कह सकते हैं क्योंकि पत्रकारिता का लक्ष्य सच का अन्वेषण है। सामाजिक शुचिता के लिए सच का अन्वेषण जरूरी है। सच भी ऐसा कि जो समाज में बेहतरी की बयार को निर्विरोध बहाये, जिसके तले हर मनुष्य खुद को संतुष्ट समझे। पत्रकारिता का उद्भव ही मदांध व्यवस्था पर अंकुश लगाने के उद्देश्य से हुआ था लेकिन आज की वर्तमान स्थिति में यह बातें बेमानी ही नजर आ रही है। आज केवल खुद को आगे पहॅुचाने और लोगों की भीड से अलग दिखाने की चाह में जो भी अनर्गल चीज छापी या परोसी जा सकती हैं सभी को किया जा रहा है। अगर आज की पत्रकारिता को मिशन का चश्मा उतार कर देखा जाये तो स्पष्ट होता है कि मीडिया समाचारों के स्थान पर सस्ती लोकप्रियता के लिए चटपटी खबरों को रखने के लिए तत्पर है।


एक दौर हुआ करता था जब पत्रकार निष्पक्ष सेवक और पत्रकारिता श्रद्धा के तौर पर देखी जाती थी। जो समाज के बेसहाराओं का सहारा बन उनकी आवाज को कुम्भकर्णी नींद में सोए हुक्मरानों तक पहुॅचाने का माद्दा रखती थी। उस दौर के पत्रकार की कल्पना दीन-ईमान के ताकत पर सत्तामद में चूर प्रतिष्ठानों के चूल्हें हिलाने वाले क्रांतिकारी फकीर के रूप में होती थी। यह बातें अब बीते दौर की कहानी बन कर रह गयी हैं। आज की पत्रकारिता के सरोकार बदल गये है और वह भौतिकवादी समाज में चेरी की भूमिका में तब्दील हो गयी है। जिसका काम लोगों के स्वाद को और मजेदार बनाते हुए उनके मन को तरावट पहुॅचाना है। देश के सामाजिक चरित्र के अर्थ प्रधान होने का प्रभाव मीडिया पर भी पडा है और आज मीडिया उसी अर्थ लोलुप्सा की ओर अग्रसर है, या यू कहिए की द्रूत गति से भाग रही है। इस दौड में पत्रकारिता ने अपने आयामों को इस कदर बदला है कि अब समझ ही नहीं आता की मीडिया सच की खबरें बनाती है या फिर खबरों में सच का छलावा भरती है, लेकिन जो भी हो यह किसी भी दशा में निष्पक्ष पत्रकारिता नहीं है।


पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है सूचना, ज्ञान और मनोरंजन प्रदान करना। किसी समाचार पत्र को जीवित रखने के लिए उसमें प्राण होना आवश्यक है। पत्र का प्राण होता है समाचार, लेकिन बढते बाजारवाद और आपसी प्रतिस्पद्र्धा के कारण विज्ञापन इतना महत्त्वपूर्ण हो गया है कि पत्रकारिता का वास्तविक स्वरूप ही बदल गया हैŸ। राष्ट्रीय स्तर के समाचारों के लिए सुरक्षित पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर भी अद्र्धनग्न चित्र विज्ञापनों के साथ आ गये हैं। समाचार पत्रों का सम्पादकीय जो समाज के बौद्धिक वर्ग को उद्वेलित करता था जिनसे जनमानस भी प्रभावित होता था। उसका प्रयोग आज अपने प्रतिद्वन्द्वी को नीचा दिखाने में उपयोग किया जा रहा है, जिसने पत्रकारिता के गिरते स्तर और उसकी दिशा को लेकर अनेक सवाल खडे कर दिये हैं। वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रभाव ने समाचार पत्रों को भी सत्य के नाम पर इतनी तेजी से दौडा दिया है कि समाचार संवाहक को स्वयं ही समाचार सर्जक बना दिया है। फिल्म अभिनेत्रियों की शादी और रोमांस के सम्मुख आम महिलाओं की मौलिक समस्याएँ, उनके रोजगार, स्वास्थ्य उनके ऊपर होने वाले अत्याचार का समाचार स्थान नहीं पा पाता। यदि होता भी है तो बेमन, केवल दिखाने के लिए।


पत्रकारिता के इतिहास पर नजर डाले तो समझ आता है कि भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब १९२० के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारत में पत्रकारिता ने इसमें प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। १८२७ में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था, ‘मेरा सिर्फ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।ङ्क वर्तमान में राजा राममोहन राय जी की यह बातें केवल शब्द मात्र हैं जिनपर चलने का किसी भी पत्रकार का कोई मन नहीं है आखिर उसे भी समाज में अपनी ऊचाईयों को छूना है। आज के समय मीडिया अर्थात् पत्रकारिता से जुडे लोगों का लक्ष्य सामाजिक सरोकार न होकर आर्थिक सरोकार हो गया है। वैसे भी व्यवसायिक दौर में सामाजिक सरोकार की बातें अपने आप ही बेमानी हो जाती हैं। सरोकार के नाम पर अगर कहीं किसी कोने में पत्रकारिता के अंतर्गत कुछ हो भी रहा है तो वो भी केवल पत्रकारिता के पेशे की रश्म अदायगी भर है।


पत्रकारिता के पतित पावनी कार्यनिष्ठा से सत्य, सरोकार और निष्पक्षता के विलुप्त होने के पीछे वैश्वीकरण की भूमिका भी कम नहीं है। सभी समाचार पत्र अन्तर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय समाचारों के बीच झूलने लगे हैं। एक ओर विदेशी पत्रकारिता की नकल पर आज अधिकांश पत्र सनसनी तथा उत्तेजना पैदा करने वाले समाचारों को सचित्र छापने की दौड में जुटे हैं। इन्टरनेट से संकलित समाचार कच्चे माल के रूप में जहाँ इन्हें सहजता से मिल जा रहा है,वहीं प्रौद्योगिकी का उपयोग कर अनेक संस्करण निकालकर अपने पत्रों को क्षेत्रीय रूप दे रहे हैं, जिसके कारण पत्रकारिता का सार्वभौमिक स्वर ही विलीन होने लगा है। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं व टेलीविजन चैनल जो गे डेङ्क यानी कि समलैंगिकता दिवस मनाते हैं, संस्कृति की रक्षा की बातों को मोरल पोलिसिंग कहकर बदनाम करने की कोशिशें करते हैं, भारतीय परंपराओं और जीवन मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं, खुलकर अश्लीलता, वासनायुक्त जीवन और अमर्यादित आचरणों का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यह सब वे पब्लिक डिमांडङ्क यानी कि जनता की मांग पर कर रहे हैं। परन्तु वास्तविकता यही है कि बाजारवाद के लाभ से लाभान्वित होने के प्रयास में अन्य पर दोषारोपण करके स्वयं को मुक्त नहीं किया जा सकता।


आज यदि महात्मा गांधी, राजा राममोहन राय, विष्णु हरि पराङकर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे स्वयं को पत्रकार कहलाने की हिम्मत करते? क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं? क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृद्ध विरासत को संभालने की क्षमता है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की जरूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा। इसके अलावा पत्रकारिता को सबसे बडा खतरा गलत दिशा में बढा कदम है। जिसके लिए बाजारवादी आकर्षण से मुक्त होकर पुनः पुरानी परम्परा का अनुसरण करना ही होगा, तभी पत्रकारिता की विश्वसनीयता ब‹‹ढेगी। मीडिया संस्थानों और पत्रकारों को पीत पत्रकारिता एवं सत्ताभोगी नेताओं के प्रशस्ति गान के बजाय जनमानस के दुःख दर्दो का निवारण, समाज एवं राष्ट्र के उन्नयन के लिए निःस्वार्थ भाव से कत्र्तवय का पालन करना होगा, तभी वह लोकतंत्री मे चौथे स्तंभ का अस्तित्व बनाये रखने में सफह हो सकेंगे।


-आकाश कुमार राय

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