"ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है..
किसी की चाहत को तोड़ दिया,
तो किसी टूटे की चाहत बनी है।
कभी लाखों उम्मीदों को कतरा बना दिया,
कभी लाखों की उम्मीद का कतरा तू रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।
जिसने सजाये ख्वाब आंखों की मानिंद,
उनके लिए नींद का कोटा नहीं दिया।
और जो ऊंचाईयों को पाने की ख्वाहीश लिये जन्में,
उन्हें ऐश-ओ-आराम की आगोश में सुला दिया।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।
हम तेरी बेहतरी के वास्ते लड़ते रहे जहां में,
और तू बेहतरीन बन अमीर की कोठी सजा रही है।
इंसा को उम्मीदों-हौंसलों की कहानी बताने वाली,
तू भी उसकी हार पर कहकहे-ठहाके लगा रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।
पहले तो सिखाती है हार से लड़ने औ जीतने के नुस्खे,
फिर अंधी-दौड़ में लोगों को अपनों से लड़ा रही है।
जब देती है जीत के शिखर का वरदान किसी को,
जाने फिर क्यों तन्हाई की सौगात उसे भेज रही है।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।
जन्म से मरण तक तू खेल बनी रही,
लोग बस हारते रहे, तू हीं जीतती रही।
अन्तिम सफर में भी तुझे ही मीर कहें लोग,
कि मरना बवाल है, जिन्दगी कमाल रही।
ऐ जिन्दगी! तू भी क्या खूब रही है।"
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