"अब सूरज की तपन से भी डर नहीं लगता,
कि उससे ज्यादा आग तो सीने में जलते हैं।
दिन भर जलता रहता मन, पर आंच नहीं कोई,
गुब्बार भरा सीने में, दर्द आंखों से छलकते हैं।
चढ़े जो ताप सिर पर और दवा ले लूँ भी तो क्या,
जलन जो दिल में उठती है उसे यादों से मलते हैं।
कहां ढ़ूंढ़े तेरी याद से बचने का अब आसरा,
जहां देखों तेरी यादों के शोले ही तो गिरते हैं।
ना कोई दोस्त ना साथी रहा, इस दर्द से जुदा,
हर किसी के मन में यादों के अंगार जलते हैं।
भला कब तक दिलों को आग देकर हम रहें जिंदा,
तुम्हें हम भूले ही बैठे हैं, पर कहां आजाद रहते हैं।"
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