गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

चल अब गांव का रुख करें...

ये शहरों की जिन्दगी हमें रास नहीं आती...
ताजी हवा भी अब यहाँ पास नहीं आती...
बेचैन है धड़कन, तन्हा ये दिल भी है...
लगता है अब कोई दुआ भी खास नहीं आती...

कल तक रही मेरे गांव में बसती मेरी जन्नत,
रहता हूँ अब शहर में पर वो सुकूं-ए-रात नहीं आती...
कंक्रीट के जंगल हैं, झिलमिलता साये हैं मकानों के...
पर इनमें कहीं भी अपने घर वाली बात नहीं आती...

कि महफिले रोज लगती है, यारों के हुजूम में...
पर जाने क्यों वहां भी अब जिन्दगी बसर नहीं आती...
अब तो बस है याद आता, गांव का वो खरिहान-बगिचा...
कि ख्वाब में भी दौड़ पड़ता हूँ, पर आंखें पहुँच नहीं पाती...

जो मिट्टी है मेरे गाँव की वो जन्नत का नूर है...
इन शहरी धूल से तो अब महक भी नहीं आती...
लगता है अब यही कि बस गांव का रुख करें...
कि इसके आगे तो मंजिल भी कोई नज़र नहीं आती...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Pages