रविवार, 15 अप्रैल 2012

मां से बातें...

"मस्तियां अपनी आज गुमा दी माँ मैंने,
जिंदगी अब अपनी उलझा ली माँ मैंने।

मिले ना सुकून के चंद लम्हें भी तो,
आंसुओं से आंख अपनी भिगा ली माँ मैंने।

तू हमेशा कहती रहती हौसला रख अपने पर,
आज तो देख उम्मीद की लौ भी बुझा दी माँ मैंने।

बनाता था कभी बचपन में कागज से कश्तियाँ,
वक्त के थपेड़ों में सारी कश्तियाँ डूबा दी माँ मैंने।

आज मैं भी मजबूर हूँ, तू भी अपने दुलारे से दूर है,
बुझदिली-आवारगी में दूरियाँ और बढ़ा दी माँ मैंने।

इतना टूटा कि अपने चेहरे पे मल ही अकेलेपन की ख़ाक,
अंधेरों में गुम अपनी होली आप तन्हा मना ली माँ मैंने।"

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