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सोमवार, 27 सितंबर 2010
चाह नहीं...
वो कुछ कह नहीं सकता।
ये वो कूचा है जिसमे,
दिल सलामत रह नहीं सकता।
कि सारी दुनिया यहाँ तबाह नहीं,
कौन है जिसके लब पे आग नहीं।
उस पर दिल जरुर आएगा,
जिसके बचने कि कोई राह नहीं।
ज़िन्दगी आज नजर मिलते ही लुट जाएगी,
कि अब और जीने कि चाह नहीं।
शनिवार, 11 सितंबर 2010
1901 में हुई ब्लड ग्रुप की खोज
सोमवार, 6 सितंबर 2010
तुम्हारी याद ....
बुधवार, 16 जून 2010
पिता : एक व्याख्या
बेटा शब्द का अध्ययन गूढता से करना होगा। 'बे' से सबसे आसानी से बनाने वाला शब्द होगा बेफिक्र। वहीँ 'टा' से 'टॉप ऑफ़ द हाउस' का विचार मन में आता है। यानि घर में बाप से थोड़ी ऊँची पोजीसन पर एक बादशाह। तो बेटा अर्थ निकला-"घर में बाप से बड़ा बेफिक्र बादशाह।"
अब पहले पुराने ज़माने के 'पिताजी' का अध्ययन करे तो, इसके तीन हिस्से होंगे।
पि- 'पिछड़ा हुआ' सबसे उपयुक्त बैठता है।
ता- तारीफ ना करने वाला।
जी- जीवन भर की ज़िम्मेदारी।
यानि पिताजी हुए - पिछड़ी सोच के, तारीफ ना करने वाले बेटे के सर पे पड़ी जीवन भर की ज़िम्मेदारी।
अब पिताजी के आधुनिक स्वरुप पापा का अध्ययन...
पा- पारदर्शिता से दूर
पा- पुरानी सोच वाला
तो 'पापा' यानि बेटे की पारदर्शिता सोच के आगे शून्य, बस पुरानी सोच का जीव।
"अब अगर ये कहे कि 'एक बेटा पिताजी के साथ रहता है।' तो कहना होगा बाप से बड़ा एक बेफिक्र बादशाह एक पिछड़ी सोच वाले, तारीफ़ ना करने वाले व् जीवन भर कि एक ज़िम्मेदारी बने, पारदर्शिता से दूर, पुरानी सोच वाले जीव के साथ रहता है। "
कड़वा लग रहा है ना! पर इस परिभाषा को १० बार लगातार पढ़िए। सच्चाई, इसकी मिठास बनकर आपका गला तर कर देगी। यह आज के ज़माने का सर्वत्र स्वीकार्य सत्य है। खैर, इन सब बातों से परे हट कर एक बाप को अपने बेटे कि हर बात मंजूर होती है। कहीं अगर वो टांग अडाता भी है तो बच्चे को गिरने से बचने के लिए। इसे वो समझ ना सके तो ये दुर्भाग्य भी बाप के हिस्से में ही जाता है।
अब रही बेटे कि भला सोचने कि बात। कौन ऐसा पिता होगा जो अपने बेटे कि उन्नति ना चाहे। अब तो दुआ है एक युग ऐसा आये, जहाँ एक बेटा अपने पिता से वो सब कहे, जो अपनी माँ से आसानी से कह लेता है।
गुरुवार, 27 मई 2010
आज का नौजवान
यही मकसद है शायद आजकल दाढ़ी बढ़ाने का।
नक़ल फ़िल्मी अदाकारों की वो फैशन समझता है,
वह तहजीब की बातो को पिछड़ापन समझता है।
जिया करता है नशे में दिल को बहला कर,
गुजरती हैं दिन उसके लोगों को उल्लू बनाकर।
बोली-भाषा-हुनर और ज्ञान में जीरो ही जीरो है,
वह बरातों में पीकर नाच सकता है तो हीरो है।
कभी शिक्षक को मारा, कभी हड़ताल करवा दी,
उसे हर रोज़ मिलनी चाहिए पढने से आज़ादी।
हो जाये झगडा खलासी से तो बस जला डाली,
खता माली की थी बुनियाद गुलशन की मिटा डाली।
यह हसरत है की रोज किसी से जंग हो जाये,
हमे पढना नहीं, औरों को क्यों पढने दिया जाये।
लड़े हक के लिए इसके सिवा रास्ता क्या है,
हमारा फ़र्ज़ क्या है इससे हमको वास्ता क्या है।
हमारे साथ जो हड़ताल में शामिल नहीं होगा,
सलामत लौट पाए घर को इस काबिल नहीं होगा।
नक़ल को क्यों नहीं इम्तिहान में आबाद किया जाये,
किताबे पढ़ के किस लिए सेहत बर्बाद की जाये।
नक़ल करने से हमके क्या रोकेगा कोई साला,
खुला रखा है जब टेबल पे कट्टा व चाकू रामपुर वाला।
यही चाकू हमारे ज़िन्दगी का रहनुमा होगा,
इसी की नोक पर हर नौकरी का दर खुला होगा।
क्या बच गयी है और भी कुछ इस वक़्त की बाते,
तो फिर चाँद लाइने और लिख के कहेंगे,
आज के युवा की हैं ये सब करामातें.....
सिगरेट : तू ही सच्चा हमसफ़र

मेरे मायूस लब पर उस समय तेरा नाम आया,
मेरे हर हमसफ़र ने साथ जब मझधार में छोड़ा,
यही सिगरेट है जिसने नहीं मेरा दिल तोडा।।
अभी भी गम है हजारों मेरी राहो में,
चला आया हूँ पर भाग कर इसकी पनाहों में,
जहाँ तक साथ भी मेरे अपने दे नहीं पाए,
वहां तक पहुचे है इसके छल्लो के सुर्खरू साये।।
यह मेरे साथ है तो रंज मुझसे दूर रहता है,
मेरे तमाम रातो में इसी का नूर रहता है,
ये खुद जल के देती है चमक मेरे अरमानो को,
सुकून देती है जला के , गम के ठिकानो को।।
माना की ये मेरे जीवन को यकीनी से इत्तेफाक करती है,
क्या हुआ की ये दिल जिगर को जला के ख़ाक करती है,
हम तो वैसे भी यहाँ अकेलेपन में मरते हैं,
इसके आने से वो सूनापन तो मिटता है...
हम पल-पल सुलगते हैं, वो धीरे-धीरे से बुझता है।।।।
शनिवार, 22 मई 2010
कुछ अपने कर्त्तव्य
शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010
लब खोलोगे , तो दिल तोड़ोगे ….
हम अक्सर कुछ ऐसी बाते कहते और सुनते हैं जो हमे तो अच्छी लगती हैं पर सामने वाला इसे पसंद नहीं करता । ये तो पता था की किसी एक बात से सबको खुश नहीं रखा जा सकता , पर ये नहीं जानता था की आपकी कही एक बात किसी को दुःख भी पंहुचा सकती है । आज
आज मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ , एक महोदय से अपने कॉमन फ्रेंड के बारे में बात की जो किसी प्रकार से उसे पता चली … खैर इसमें कोई गलत बात नहीं थी क्योंकि मै खुद उससे इस बारे में बात करने को था । मै उसे बताना चाहता था की अमुक व्यक्ति से मेरी बात हुई , पर अमुक व्यक्ति मुझसे तेज़ निकला और एक प्रकार से मेरी कही हर अच्छी-बुरी बात को उसके सामने ऐसे रखा की मै ही दोषी हो
अपनी गलती की माफ़ी तो
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
सवाल यही : कौन गलत, कौन सही
कैसी विडम्बना है की गुंडों, लोफरो और बदमाशो को अब 'बाहुबली' जैसे सशक्त शब्द की पारी सीमा में गढ़ दिया गया है। जो लोगो को उनके प्रति घृणा की जगह सम्मान और उनके बढ़ते रसूख को बढ़ावा देता है। ऐसे में एक सवाल उठता है की क्या वाकई भारतीय राजनीती में ये बाहुबली अपनी लिए खास मुकाम बना चुके हैं? क्या आज बाहुबली होना शर्म की नहीं गर्व की बात बन गयी है? क्या नैतिकता के लिए अब कोई जगह नहीं बची?
हमारे सामने सवाल मुश्किल है। अगर उद्योगपति अपनी अकूत दौलत की बदौलत, कोई अपराधी अपने बहुबल की तर्ज पर और कोई पत्रकार-लेखक अपनी कलम बेचकर संसद या विधानसभाओ में 'जनप्रतिनिधि' का दर्जा पाने की कोशिश करता है तो इनमे से किसे अलग और एक आदर्श के तौर पर देखा जाये???
रविवार, 14 फ़रवरी 2010
वो कैसा शख्स है ...

वो कैसा शख्स है की हर रोज सजा देता है
फिर हंसाता है वो इतना की सब भुला देता है
कभी जो रो दे तो मुझ को भी भूल जाता है
और फिर भूल के मुझ को भी रुला देता है
हमारे पास न आने की क़सम खा कर वो
“आजा ” लिखता है वो कागज़ पे उड़ा देता है
उससे पूछो की बताये किससे मुहब्बत है तुम्हें
नाम सरगोशी में मेरा ही सुना देता है
कभी कहता है चलो साथ हमेशा मेरे
चल पड़े साथ तो रास्ता ही फिरा देता है
खुद ही कहता है न दोहराओ पुरानी यादें
मैं न दोहराऊँ तो फिर खुद ही सुना देता है
खुद ही लिखता है की जज़्बात में हलचल ना करो
और फिर खुद ही नयी आग लगा देता है …!!!
बुधवार, 3 फ़रवरी 2010
संवादों ने जीता दिल …. शायद आत्मा भी जगाई
यह फिल्म रण के एक गीत की वह पंक्ति है जो कहानी के अनुसार मीडिया की महत्ता को दर्शाती है की अगर मीडिया ने
1- कुछ चुनिन्दा अवसरवादी लोगो की कट्टरपंथी सोच का नाम ही कौमी नफरत है ।
इस संवाद ने शायद सभी को एक बार तो यह सोचने को मजबूर कर ही दिया होगा की ये वाकई सच है । और उस पल हमारे मन की साड़ी कद्वाहते ख़तम हो गयी होंगी ।
2- कोई हिन्दू-मुस्लिम नहीं होता बस लोग होते हैं । अपने-अपने तरीके से जीवन जीना ही धर्मं है ।
यह संवाद विचारों की मंथन चासनी में काफी पाक कर ही कागज़ पर आया है । लेखक भी अक्सर सोचता रहता होगा की आखिर ये धर्मं है क्या ? क्या दो लोगो के बीच विषमता की परिभाषा ही धर्मं है ?
अगर किसी भी धर्मं या जाती के दो लोगो को आपस में बदल कर एक-दुसरे के स्थान पर रखा जाएऔर सारे काम उन्हें दुसरो की तरह करने हो तो भला कौन कह पायेगा की अब वह हिन्दू-मुस्लिम याकिस अन्य जाती का है । बल्कि वह सिर्फ एक इंसान है, हाड-मांस का बना जो हमारी-आपकी तरहकेवल खुद का पेट पालने के लिए काम करता है । उसे ना तो दुनियादारी की चिंता है ना किसीधर्मं-जाती की , वह बस काम करता है और अपने मालिक से चाहे वह हिन्दू हो या मुस्लमान अपनीमजदूरी ले घर को आता है ।
समाज का आईना अब सामाजिक बदलाव को जागरूक
कहने को तो फिल्मे समाज का आईना होती हैं . परदे पर वही कहानी दिखाई जाती है जो वास्तविकता में इंसानों के जीवन में घटित होती है कभी-कभी ऐसा लगता है की परदे पर प्रस्तुत हो रहा व्यक्तित्व किसी भी प्रकार से आम लोगों से मेल नहीं खता। क्या कभी ऐसा देखा
अक्सर ऐसा होता है की मसाला फिल्मो से अलग किसी सन्देश को लेकर प्रचारित होती फिल्मे फ्लॉप हो जाती हैं पर उसका सन्देश पूर्णतः बेकार जाए ऐसा कभी नहीं होता । तभी तो सभी प्रकार के ड्रामे के साथ हसी-मजाक में आमिर ने मन की सुनकर कैरीअर बनाने की बात कही और लोगो ने इसे सराहा । विजय हर्षवर्धन मालिक के किरदार ने भी सार्थक पत्रकारिता की लड़ाई लड़ी , जिसकी मशाल पूरब शास्त्री (रितेश देशमुख ) जैसे युवा के हाथो में थमा दी ताकि जर्नलिज्म को सही दिशा में ले जाने के लिए युवा उत्तरदाई बने ना की टीरपी को लक्ष्य बनाये ।
इस प्रकार ये साबित हो गया की अब हमारा सिल्वर स्क्रीन मसालों की तड़क भड़क के बीच समाज में सकारात्मक बदलाव लाने की क्षमता के साथ भी अपने कदम बाधा रहा है। जो शायद आने वाले भविष्य में हमारी नई पीढ़ी को नया तजुर्बा सिखाये।
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
हम और आप सिर्फ कहते हैं...
हम और आप सिर्फ कहते है और सिर्फ कहते ही है कि हमारी सरकार नाकाम है, निकम्मी है, कामचोर है, कुछ नहीं करती है, यहां कानून कोई मायने नहीं रखता है। कानून रसूखदारों और सत्तासीनों की रखैल से ज्यादा कुछ नहीं है। जल बोर्ड का पानी घर की बजाय नालियों में जाता है। नगर निगम सफाई नहीं करता है। फोन महिनों ठप्प पड़े रहते है। सड़के टूटी पड़ी रहती है लेकिन कागजों में सेंकड़ों बार बन जाती है। ट्रेनों के आने जाने का समय हमें सदी का सबसे बड़ा मजाक लगता है। हम सिर्फ कहते है और सिर्फ कहते है।
लेकिन जब हम और आप विदेश जाते है तो सिगरेट के ठूंठों को लंदन की सड़कों पर नहीं फेंकते है। न्यूयोर्क की सड़कों पर गलत साइड चलाने पर ट्रेफिक के हवलदार को ‘जानता नहीं मैं फलां का साला हू’ की धमकी नहीं देते। रोम की दीवारों पर भी खैनी खाकर नहीं थूकते। जबकि अपने देश में हम इंतजार कर रहे है किसी मिस्टर, मिस एंड मिसेज सुपर क्लीन का। क्या यह संभव नहीं है कि हम खुद ही कुछ छोटा-छोटा सा, थोड़ा- थोड़ा सा योगदान दे दें? यदि आपका जवाब हां है तो पहल कीजिए अपने आप से। ताकि बना सकें एसा समाज जैसा हम चाहते है। संस्कार अपने बच्चों को देना चाहते है, क्योंकि जैसा आज आप बोएगें, कल वैसा ही अपने बच्चे काटेगें।
चैनलों की भीड़ में भी अखबार का सर ऊँचा
29 जनवरी 1780 को पहली बार कलकत्ता से प्रकाशित भारत के प्रथम अखबार ’बंगाल गजट’ के जन्म दिवस के रूप में 29 जनवरी को ’न्यूजपेपर डे’ मनाया जाता है। ऐसे कयास लगाए जा रहे थे कि खबरिया टीवी चैनलों की 24*7 खबरों की आंधी में अखबार खत्म हो जाएगा ऐसे लगाये गये सभी कयासों को अखबारों ने झूठा और तर्कहीन साबित कर दिया है। खबरिया टीवी चैनलों पर खबरों के नाम पर ब्रेकिंग न्यूज, फिल्मी प्रोग्रामों के लटके झटके, विभिन्न तरीकों से भाग्य बांचते बाबा और सुंदरियां, खोजी पत्रकारिता के नाम पर नेताओं के बेडरूम में तांक झांक, के साथ सबसे तेज खबर परोसने के दावों के बीच अखबारों के पाठक संख्या में न सिर्फ दिन प्रतिदिन इजाफा हो रहा है बल्कि इसकी साज सज्जा, ले आउट, प्रस्तुतिकरण और कंटेट में भी तेजी से निखार आता जा रहा है। इंटरनेट के इस युग में अखबार ने भी अपने आप को समय के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने की ठान रखी है। बात चाहे अखबारों के ई- संस्करणों की हो या मार्केटिंग स्ट्रेटजी की, अखबार कहीं भी कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ रहे है।
यह प्रेक्टिकल बात है इस पर गौर करने की भी जरूरत है कि मौजूदा समय में अखबार को जो सबसे ज्यादा चुनौती इंटरनेट से मिल रही है और उसी इंटरनेट को भी अखबार ने अपने प्रसार का माध्यम बना लिया है। अखबारों के ई- संस्करण निश्चित तौर पर पर्यावरण के अनुकूल है, वृक्षों की भी बचत हो रही है। बावजूद सभी चुनौतियों के अखबार का वजूद अब भी हमारे देश में बहुत मजबूत है और आने वाले समय में इजाफे की पूरी संभावनाएं दिख रही हैं। बाजारीकरण के इस दौर में अखबार के सामाजिक दायित्वों और सरोकारों पर मुनाफाखोरी, व्यावसायिक प्रतिस्पर्धा, भौतिकवाद, नंबर वन की रेस हावी होती दिख रही है, साथ ही साथ संपादकों पर मार्केटिंग कर्मियों को तबज्जों अस्वस्थ परंपरा की नींव रख रहा है। आज वही छापा जा रहा है जो बिकाऊ है।
एक वरिष्ठ पत्रकार ने अखबारों पर हावी होते बाजारवाद पर टिप्पणी करते हुए लिखा था कि समाचार वो है जो विज्ञापन की पीठ लिखा जाता है। कुछ को छोड़कर सभी अखबार बड़े बड़े कॉर्पोरेट घरानों के व्यवसायिक प्रतिष्ठान है जो उनके कई अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के साधन मात्र भी है। कई अखबार सिर्फ स्कीमों के दम पर बिक रहे हैं। साल भर के लिए अखबार की बुकिंग दीजिए तो एक झोला गिफ्ट में साथ मिलेगा जिसकी कीमत साल भर के अखबार की कीमत से अधिक बताई जाती है। मार्केटिंग का गणित, मार्केटिंग वाले इस तरह पाठक (याने कि उपभोक्ता) को समझाते है कि कीमत के एवज में झोला पाआ॓, रद्दी बेच कर मुनाफा कमाआ॓, फ्री में अखबार पढ़ो। ये केवल इस लिए की अखबार आपको अपनी ओर आकर्षित कर सके और आप कहीं और ना भटके ....
शुक्रवार, 22 जनवरी 2010
गलत दौर में पाई ज़िन्दगी

बहुत चोट खाई पर आई न चतुराई
जीवन भर बस पाता रहा मेहनत की कमाई
समझाते रहे साथी की खुद को कुछ बदलो
पर कहाँ ठेठ मानस को बात समझ में आई
अब भी लगा पड़ा हूँ अपनी ही धुन में
की न मिला चाहे कुछ पर शीश ना झुकाई
आज शायद ना झुकी नज़रों का हश्र मै जनता हूँ
हेय हुआ सबकी नज़रों में पर खुद में शाख बचाई
शायद मै आज के दौर का अवतार नहीं हूँ
फिर भी हर जंग पे है अपनी जान लड़ाई
न जीत सका इस दुनिया को अपने हिसाब से
पर जी रहा हूँ क्या ये कम है लड़ाई
हर पल बढ़ते लोगो में विश्वास को मरते देखा है
मै बढ़ा दो कदम ही पर चढ़ा विश्वास से
ना जानता हूँ ना जानने की कसक है दिल में आई
कि लोग मानते मुझे बुजदिल या मेरे हिम्मत ने दाद पाई
मै यूँ ही चल पड़ा था अपने ही जूनून में
न सोचा कोई साथी करेगा हौसला अफजाई
पर जहाँ भर की खुदगर्जी में कुछ दोस्त ऐसे मिले
जो दौड़ती दुनिया में मुझ पैदल की कर रहे बड़ाई
मै कोसू भी तो कैसे अपने ही जनम को
पर सच है मैंने गलत दौर में है ज़िन्दगी पाई ।।
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
बंधन में उन्मुक्त सोच

पिंजरे में कैद पंछी ये सोचता रहा
छूना था आसमान पर क्या से क्या हुआ
वीरान जजीरे पे खड़ा देख रहा हूँ
हर ओर अंतहीन समंदर का सिलसिला
हम अपनी सफाई में कभी कुछ न कहेंगे
एक रोज़ वक़्त खुद ही सुना देगा फैसला
लोगो की शक्ल में महज जिस्म बचे हैं
रूहें तो जाने कब की हो चुकी हैं गुमशुदा
जो ज़िन्दगी को जीते रहे अपनी तरह से
ये सिर्फ वही जानते हैं उनको क्या मिला
अच्छा कहा किसी से न किसी से बुरा कहा
मै तो बस आईने की तरह पड़ा रहा
जिसने जैसा चाहा वैसा ही अक्स पाया
रिश्तों को मत बना या मिटा खेल समझ कर
रिश्ते बना तो आखिरी दम तक उसे निभा ....
मंगलवार, 19 जनवरी 2010
आज क़ी सरस्वती वंदना

यह कोई दोष नहीं है बल्कि हमारा भावावेश है कि हम चाहे जिस वास्तु कि खोज कर रहे हो पर जब हम भावनात्मक रूप से लबरेज होते हैं तो हमारी मुख्य मांग अपने आप हमारी जुबान पे आ जाती है। या यूँ कहिये कि हमारी जरुरत या वो कमी जिसकी हमे ज्यादा आवश्यकता है स्वतः ही लबों पे स्फुतिक हो जाती है। अगर आज के समय में लोगो कि धारणा के हिसाब से माँ सरस्वती कि आराधना मंत्र का उच्चारण होगा तो वह शायद ऐसा ही होगा....
''वीणा वादिनी वर दे , बुद्धि का भंडार दे
घर में मिले ऐश हमको, ऐसा कोई उपहार दे
न करे कोई उपेक्षा , हर लब हमको जय दे
धन-धान्य न कभी हमसे रूठे ,
लक्ष्मी से मेरे घर को भर दे,
माँ वीणा वादिनी वर दे......''
क्या ये दर्द भी दिखावटी है?

क्यों आत्मा जब शरीर को छोड़ कर चली जाती है तब ही सबको ज्ञात होता है की वह भला मानस था । उसके द्वारा किये गए काम सराहनीय हैं । ये सब बांटे तो उसके जीवित रहते भी तो की सकती थी । आखिर ये कैसी राजनीति हमारे समाज में फैली है की इंसान के मरणोपरांत ही उसके अनूठे कार्य की प्रशंशा होती है । क्या केवल यादों में ही किसी को अच्छा या बुरा कह देने से काम ख़त्म हो
आज भले ही सभी अखबारों में लेखों , सम्पादकीय और स्तंभों में ज्योति बासु जी को राजनीति का आदम पुरुष की संज्ञा दी जा रही है पर इन्ही बासु जी को कांग्रेस ने हाल ही में बने सरकार से ये कह कर किनारा कर लिया था की वाम दल की कोई निश्चित सोच नहीं की कैसे देश को विकास के पथ पर ले जाया जाए । जब कांग्रेस ने केंद्र में सत्ता पायी तो पत्रकारों के पूछे सवाल पे स्पष्ट उत्तर मिला था की लेफ्ट द्वारा बार बार सर्कार को भ्रमित करने का काम किया जाता रहा है । इसलिए इस बार कांग्रेस ने अकेले , बिना लेफ्ट की मदद के सरकार बनाने तथा चलाने का काम करेगी । वहीँ विपक्षी पार्टियाँ भारतीय जनता पार्टी , समाजवादी पार्टी तो पहले से ही लेफ्ट की नीतियों पर प्रश्न उत्थाये हुए हैं । यहाँ तक की बंगाल में वामदल की चीर प्रत्ज्द्वंदी ममता बेनर्जी ने भी बासु और उनकी पार्टी को गलत नीतियों का पोषक बता कर सत्ता पर काबिज हुई । और आज ये ही सारे दुनिया से रूठे हुए महान जीवन को याद की लोरी में गुनगुना रहे हैं ।।।
रविवार, 17 जनवरी 2010
हमारी सांस्कृतिक जननी है गाय
भारतमाता को ग्रामवासिनी कहा जाता है। अर्थात भारत को पहचान देने वाली विशेषताओं एवं जीवनशक्ति प्रदान करने वाले कारकों का उद्भव गांव आधारित व्यवस्था से होता है। भारतीयता प्रदान करने वाली इस ग्रामीण संरचना का आधार गाय है। गाय ही वह केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों तरफ भारतीयता का ताना -बाना बुना गया है। गाय का गोमय एवं गोमूत्र भूमि का पोषण करते हैं पंचगव्य मनुष्यों का पोषण करता है। रासायनिक खेती के दुष्प्रभावों और जैविक खेती की बढती मांग ने गायों की महत्ता को एक बार फिर से रेखांकित किया है। भारतीय नस्ल की गायों में अल्प मात्रा में स्वर्णमाक्षिक भस्म पाए जाने और अन्य जानवरों से अधिक सुपाच्य होने की बात पुष्ट हो चुकी है। गाय से प्राप्त होने वाले पंचगव्य औषधीय गुणों से भरपूर है। पंचगव्यों के औषधीय गुणों के कारण ही गो-चिकित्सा एक वैकल्पिक चिकित्सा व्यवस्था के रुप में उभर रही है। गोमुत्र में कैंसररोधी तत्वों के पाए जाने की पुष्टि हो चुकी है। आयुर्वेद के अनुसार पंचगव्य का सेवन शरीर में वात, कफ और पित्त को साम्यावस्था में लाकर सभी रोगों का शमन करता है।
पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में भी गाय की महत्वपूर्ण भूमिका है। गोबर गैस प्लांटों का उपयोग खाना बनाने के लिए ईंधन के रुप में किया जा सकता है। इससे कार्बन उत्सर्जन में कमी के साथ रासायनिक खादों के विकल्प के रुप में हमे जैविक खाद भी मिलेगी। गोबर से बिजली प्राप्त करके हम स्वावलम्बी उर्जा गृह का निर्माण कर सकते हैं। इससे भारत को अपनी उर्जा जरुरतों को पूरा करने के लिए किसी के सामने रिरियाना नहीं पडेगा। न ही अपनी सम्प्रभुता को गिरवी रखकर अमेरिका के साथ नाभिकीय समझौता करने की नौबत आएगी। साथ ही भारत की अकूत सम्पदा बाहर जाने से बच जाएगी।
भारत और गाय का सम्बंध आर्थिक, चिकित्सकीय एवं पर्यावरणीय से अधिक सांस्कृतिक है। पक्ष से अधिक भारत जिन मूल्यों, आस्थाओं, दर्शनों का उपासक है गाय का उनसे सम्बंध है। गाय की सांस्कृतिक महत्ता को स्वीकार करते हुए ही इसमें सभी तैंतीस करोड देवताओं का वास बताया गया है। एक भारतीय जीवन से लेकर मरण तक गोमाता से जुडा होता है। पैदा होने पर गाय के गोबर से ‘लीपकर’ घर में स्वागत किया जाता है और अंत समय उसका परिवार गोदान कर उसे ‘वैतरणी ‘पार कराता है। किसान नयी फसल से प्राप्त अनाज को गाय के गोबर से ‘गोंठकर’ ही तौलना प्रारम्भ करता है। घर में सभी धार्मिक कर्मकाण्डों से पहले भूमि का गोमय से शुध्दीकरण आवश्यक है। और घर में बनने वाला भोजन का पहला हिस्सा गोग्रास के रुप में गोमाता को ही समर्पित किया जाता है। हम कह सकते है कि गाय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक रुप से भारतीय जनजीवन में रची-बसी है। गोसंवर्ध्दन और गोसंरक्षण करके हम भारत और भारतीयता को नई शक्ति प्रदान कर सकते हैं।