बुधवार, 21 सितंबर 2011

कुछ यादों के मंजर...

"आज फिर कुछ पुराना मंजर याद आने लगा है,
उन हसीन लम्हों को सोच मन हर्षाने लगा है,
कभी हर पल की जिद्द पर कोई ख्वाहिश पूरी होती,
आज ख्वाहिशे हैं हल पल बस जिद्द अधूरी सोती!

हमारी शरारतों पर उन दिनों मिलती हमें लोरियों की थाप थी,
आज दिल खोजता उस डांट को, जिसमे कभी दुलार की छाप थी!

जाने क्यों वक़्त दूरियों की इतनी पाबन्द होती है,
कि समय के साथ बदलाव की बाते बुलंद होती हैं,
क्यों नहीं सब रिश्तें हर समय एक समान होते हैं,
क्यो बचपन बीतने पर हम नींद-ओ-चैन खो देते हैं।

जब कभी इन बातो पर आता विचार, होते हम शर्मिंदगी से चूर,
आखिर क्यों अपनों से हैं हम दूर, कि क्यों हम हैं इतने मजबूर...!"

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