"नियमते कुदरत जीवन ये
मिला है,
कैसे इसकी चाह को पूरा न
करुंगा,
चाहूँगा उम्र सारी तेरी
आरजू में कटे,
रहूँ जब अर्थी पे
लेटा...
तब भी लब पे तेरा ही नाम
रहे।
करुँ हर पल इंसानियत की
सेवा,
न एक पल भी बैर की
मुझमें आग जले,
हो चाहे वो साथी या
दुश्मन का सरमाया,
हर एक से मेरी निभे...
और कुछ कदम वो बन मीत
चले।
न चाहा न चाहूँगा कि भव
सागर में मैं डुबूँ,
चाहत इतनी की ओंकार धुन
बन जहां में गूँजू,
एक रोशनी मुझमें जले,
मैं प्रकाश का पुंज बनू,
जब अंधेरा हो जाये संसार
में तो...
एक ज्योत बन दुनिया में
हर पल जलूँ।
चाहतों की लम्बी
फेहरिस्त नहीं अपनी,
बस जब कभी आरजू में लब
खुले,
एक राम धुन के सिवा न
कुछ गनू...।।"
सार्थक, सुन्दर, बधाई
जवाब देंहटाएंशुक्रिया शुक्ला जी... आपको कविता पसंद आयी मतलब मैंने कुछ मेहनत जरुर की है....
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