बुधवार, 9 मई 2012

चन्द पंक्तियां...

चार...

राही-ए-ख्वाब की मंजिल से पहले वापसी नहीं मुमकिन,
कि वो मर भी न पायेंगे, जीवन की दुश्वारियां अलग रहीं।

क्या निकालू इनमें नुख्श, कहां इन्हें दूर तक जाना है,
मैं तो निकालू उनमें नुख्श, जिन्हें दूर तलक जाना है।

ऐ दिल तू करता जा, इश्क-ए-राह में नादानियां जी-भरके,
कि जब तक तेरा दर्द ना छलके, लोग शेर समझते हैं कहां।

यकीं तो है दिल को, फिर तुमसे मुलाकात ना होगी,
पर दुआ एक बार मिलने की, जाने क्यों निकलती है।

इसी डर से तो अब रात को हम सोते नहीं हैं,
कि ख्वाबों में भी बिछड़ोंगे तो जीयेंगे कैसे...।

ऐ जिन्दगी अब तू भी रुठ जा, किसी बहाने मुझसे,
कि रुठे हुए लोगों को मनाने में मशक्कत बहुत है।

राह भी उनको मिलती है, जो राहगीर बन चलते हैं,
मंजिल भी मिल जाती है, जब हौंसलें यकीं में ढ़लते हैं।

ताज्जुब नहीं इसमें सबकी हमसे नहीं पटती,
बहुत से लोग दुनिया में पसंदीदा नहीं होते।

तय क्या कर दी मंजिल अपनी, वो ऊंचे पे जा बैठी,
अब उसकी ही तलाश में, हम कबसे सफर में हैं...।

ये सोच कर नहीं देखता हूँ अब मैं ख्वाब भी कोई,
कि तेरी याद ने सोने न दिया तो ख्वाब अधूरे रहेंगे।

ये तेरा कमाल है जो हमें सब जानने लगे,
वर्ना तो हम तन्हाईयों के पते पर रहते थे।

मेरी चुप्पी इसलिए कि ना बढ़े और फसाद,
पर असलियत में तुझसे गिले हैं तो सही...।

अच्छा वक्त भी अब तो सरकार सा ही लगने लगा है,
कि आसरे बढ़ते जाते हैं, पर उम्मीद पूरी नहीं होती।

मोहब्बत में यही एक बात सबको सताती है,
कि मेरे सिवा कोई और तो अजीज नहीं उसे।

सीख रहा हूँ अब लहरों से उलझकर जीने का तरीका, 
कि लोग कहते हैं साहिल पर बैठने वाले पार नहीं होते।

उड़ते हुए परिंदों से मत पूछो क्या है थकान के मायने,
उसकी नज़र में मंजिल से कम कुछ समझौता नहीं।

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