बुधवार, 2 मई 2012

तड़प...


आज फिर नींद इन आंखों से ओझल रही है,
कि थकान भी बहुत है पर करार नहीं कोई।

जाने किस घड़ी का अब इंतजार है इन्हें,
कि लोरिया सुनाने भी आयेगा क्या कोई।

जब जागते रहे तो कोई साथ न दे सका,
अब सोने की ख्वाहिश है तो नींद है खोई।

कैसे जहान-ए-इश्क में लोग डूब जाते हैं,
हम जबसे निकले हैं नहीं कतरा नसीब कोई।

ये किस्मत की बात है या फिर साजिशों का दौर है,
रखते हैं हम भी दिले नाजुक सीने में, नहीं बुतमईन कोई।

अब सोचते हैं फाड़कर जहान को दिखला ही दें सीना,
कि दिल यही लोथड़ा है या और चीज हुई कोई।

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