माँ’ सृष्टी की सबसे
खूबसूरत कृति है, जिसके पास अपने से ज्यादा अपने बच्चों की बेहतरी के लिए चिंतित
होने का सारा अधिकार निहित होता है। माना जाता है कि ईश्वर ने स्वयं अपनी देखभाल
करने के लिए ‘माँ’ की रचना की और आज
वहीं ‘माँ’ पूरी दुनिया बन गयी है। एक
छोटे से प्यारे शब्द ‘माँ’ को स्वयं भी
यह नहीं पता कि वह अपने बच्चों को कितना चाहती है। ‘माँ’ की निश्छल, असीमित प्यार, स्नेह और नि:स्वार्थ ममता अतुलनीय है।
इन्सान को जो प्यार अपनी ‘माँ’ से मिलता है वह किसी और से नहीं
मिलता। दुख-दर्द और मुसीबत में माँ एक ऐसी ढ़ाल बन कर अपने बच्चों का सहारा बनती
है कि दुनिया की सभी बुराईयां भी उसे पार कर बच्चें तक नहीं पहुँच पाती। एक बच्चें
की सबसे सुन्दर ध्वनि वह है जो उसके हृदय की अतल गहराईयों से आती है- वह है ‘माँ’। प्रेम, स्नेह और आशाओं से भरा यह शब्द ‘माँ’ सर्वत्र, सर्वज्ञ,
सर्वव्यापी है। जो दुख के क्षणों में दिलासा देता है तो कठिन वक्त में आशा और कमजोरी
भरे पल में हमारी ताकत है। दुनिया की हर चीज माँ का ही विस्तार है। सूरज के मन में
पृथ्वी के लिए ममता है, उसकी गोद में पृथ्वी स्नेह की गर्मी लेती है। शाम होने तक
धूप का छाता ताने रहता है सूरज, जब तक पृथ्वी समुद्र के संगीत और चिड़ियों के गान
के साथ सो नहीं जाती।
यह पृथ्वी भी माँ है- वृक्षों और
फूलों की, नदियों और झरनाओं की, समतल मार्गों से लेकर उबड़-खाबड़ पठारों की। असल
में दुनिया में जितनी भी प्राकृतिक वस्तुए उपलब्ध हैं, उनका संरक्षण कर अपने
बच्चों के उपभोग के काबिल बनाने वाली पृथ्वी ही है। इतना ही नहीं यह पेड़-पौधे भी
अपने महान बीजों और फूलों के जन्मदाता है। आदिरुपा, अनादि-अनन्त रुप की देवी है माँ,
जो अपने अन्दर सौन्दर्य और प्रेम का भंडार समाये हुए है। शिशु की एक मुस्कान पर
अपनी खुशियां लुटा देने वाली माँ ही तो है, जो बच्चें की नींद के लिए अपनी रातें
कुर्बान करती है। उसका भविष्य संवारने के लिए अपने सपनों और इच्छाओं को भी भूल
जाती है।
शब्दों-अभिव्यक्तियों से परे और
दुनिया के हर संबंध से ऊंची होती है माँ। थोड़ा बचपन की ओर लौटे तो... वो माँ ही
तो थी, छोटी सी बीमारी में भी दिन-रात सिरहाने बैठी जागा करती थी। परियों की,
जानवरों की अनगिनत कहानियां होती उसकी जुबान पर और वह अपनी मधुर लोरियों से हमारी
नींद को ख्वाबों से सजा देती थी। माँ ही तो है जो नैतिक, सामाजिक और मानवीय
मूल्यों के बीज हमारे अन्तर्मन में बचपन से ही डाल देती है, ताकि हम वास्तविक
अर्थों में पूर्ण इंसान बन सके।
समय के साथ-साथ माँ की भूमिकाओं में
भी परिवर्तन आया है। अब वह परम्परागत अर्थ वाली माँ से इतर भी समाज में अलग
पहचान और खुद का वजूद रखने लगी है। आज एक माँ
न सिर्फ परिवार बल्कि समाज, राज्य और देश की अर्थव्यवस्था से लेकर उसकी नीतियों
में भी सक्रिय तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। किन्तु यह वह बिन्दू है,
जहां स्त्री की दोनों भूमिकाओं के बीच परस्पर टकराव भी उत्पन्न होता है। आज कई
व्यापारिक, खेल और फिल्म जगत की माये हैं जो आधुनिक और परम्परागत माँ की भूमिकाओं
को निभाने का सफल प्रयास कर रही हैं। फिर भी समाज अक्सर कहता है कि सैलिब्रिटी माँ
एक औसत भारतीय माँ का व्यक्तित्व नहीं निर्धारित करती, बल्कि सिर्फ एक छवि बनाती
है। वास्तव में आज की आधुनिक माँ अपने परम्परागत और कामकाजी व्यक्तित्व के बीच
लगातार सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही है। दोनों छवियों में टकराहट होती है, तभी
परम्परागत माँ जीत जाती है।
माँ ऐसा शब्द है जो बच्चा पैदा होने
के बाद सबसे पहले बोलता है, इसलिए कहा जाता है कि ईश्वर का दूसरा रुप है माँ। सच
ही है माँ जैसा दूसरा कोई हो भी नहीं सकता। कितने रुप समाये होती है माँ अपने आप
में। नौ माह तक बच्चे का पेट में रखना और फिर उसके जन्म के बाद उसकी देखभाल में लग
जाना, उसका पल-पल ख्याल रखना। रोने पर चुप कराना और भूख लगने पर दूध पिलाना, बस हर
पल अपने बच्चों की खुशियों में ही डूबे रहती है माँ। आज सामाजिक परिदृश्य बदल गया
है, दुनिया तेजी से बदल रही है. हर चीज में परिवर्तन आया है पर बदला नहीं है तो माँ
का रुप। वही ममता, वही प्यार, वही स्नेह और वही गुस्सा, सब कुछ वैसा ही कुछ भी तो
नहीं बदला। पहले की समय में महिलाएं घर पर ही रहती थी तो बच्चों और परिवार की
देखभाल में ही जुटी रहती, पर अब समय के साथ यहां भी बदलाव हुआ है। अब माँ आफिस से
लेकर घर तक हर काम बखूबी निभा रही है। घर की चिन्ता से लेकर आफिस के बोझ को सहते
हुए भी माँ के चेहरे पर कोई शिकन नहीं होता, बल्कि घर पर बच्चों की एक मुस्कान और
प्यार भरे शब्द से वह सारे कष्टों को भूल आह्लादित हो जाती है।
आज जीवन शैली निरन्तर प्रगतिशील और
उपभोक्तावादी हुई है, लेकिन माँ हमेशा दिल से माँ रही है। चाहे वह बर्बर युग की
माँ रही हो, मध्यकाल की माँ हो, औद्योगिक क्रांति के दौर की माँ रही हो या फिर आज
की सुपर मॉम। माँ की भावनाओं में रत्ती भर का कोई परिवर्तन नहीं आया है। आज
के समय में विशेषकर महानगरों में 27 फीसदी महिलाएं अपने घर-परिवार की आर्थिक
जिम्मेदारियों को उठाती हैं। पिछले पांच दशक में महिलाओं के हिस्से में आने वाली
काम की जिम्मेदारियों में 35 फीसदी से ज्यादा का इजाफा हुआ है। सुपर मॉम बन जाने
का मतलब यह नहीं हुआ कि वह घर की तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त होकर सिर्फ और सिर्फ
आर्थिक उपार्जन करती हैं। पिछले दिनों एक सरकारी सर्वेक्षण में ये बात उभर कर आयी
है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों से लेकर प्राइवेट फर्म तक में काम करने वाली 99.5
प्रतिशत महिलाएं दफ्तर से छुट्टी के बाद सीधे घर आती हैं। जबकि पुरुषों के विषय
में आंकड़े कुछ और ही बातें बताते हैं। दफ्तर का काम निबटा सीधे घर पहुँचने वाले
पुरुषों का प्रतिशत महज 75 से 80 फीसदी है। शेष 20-25 फीसदी पुरुष दिनभर की थकान
मिटाने के लिए पार्टियों और दोस्तों का सहारा लेते हैं, पर महिलाएं आफिस की
जिम्मेदारियों के निर्वाह कर घर के लिए तत्पर रहती हैं।
मुम्बई जो देश का सबसे ज्यादा आधुनिक
और कैरियर के लिहाज से तेज रफ्तार वाला शहर माना जाता है वहां पर भी महिलाएं माँ
बनने की खुशी को कैरियर से ज्यादा तवज्जों देने की बात करती हैं। देश की राजधानी
दिल्ली सहित अन्य बड़े शहरों में भी बीते सालों में कुछ ऐसा ही ट्रेंड देखने को
मिला है। इन महानगरों की 90 से 95 फीसदी महिलाओं का औसत बयान यही है कि वह समय पर
माँ बनने के लिए नौकरी छोड़नी पड़े तो वो ऐसा करेंगी। माँ को समाज में श्रेष्ठ
होने का दर्जा आज से नहीं बल्कि पुराणों के समय से ही है। उस युग में भी माताएं
सदाचार, चरित्र, संस्कार और कर्तव्यपालन को अपने व्यक्तित्व से परिभाषित करती थी।
ऐसी ही एक गरिमामयी माँ थीं सती अनुसुइया, जिन्होंने भगवान को भी अपनी ममता के आगे
नतमस्तक कर दिया था। सती अनुसुइया ने त्रिदेवों ब्रम्हा, विष्णु और महेश को शिशु
बना दुग्धपान कराया था। वे जब पुन: यथार्थ रुप में आये तो माँ की शक्ति से अभिभूत
हुए थे, तब त्रिदेव भी कहे बिना ना रह सके कि माँ तुम महान हो। इसी तरह भगवान राम
की माँ कोशल्या, कन्हैया की माँ यशोदा और गणेश की माँ पार्वती पौराणिक काल की वो
माताएं हैं, जिन्होंने माँ के उच्च आदर्श को समाज के सामने रखा।
माँ और बच्चे का बड़ा ही आश्चर्यजनक
रिश्ता है। माँ अपने बच्चों के सभी भावों का बिना उसके कोई शब्द उगले भी पहचान
लेती है। चाहे बच्चा संकट में हो या फिर उसे माँ की जरुरत हो माँ की धड़कने अपने-आप
बढ़ जाती है और उसका विश्वास की बच्चा सकुशल होगा अंतत: जीत ही जाता है। अगर एक
मां को बालिवुडिया चश्में से देखें तो आमिर खान की फिल्म ‘तारे जमीन पर’ का वह गाना खुद ही सारी कहानी बयां करता है कि ‘...तुझे सब है
पता मेरा माँ, मैं कभी घबराता नहीं, पर अंधेरों से डरता हूँ मैं माँ, तुझे सब है
पता मेरी माँ।’ वास्तव में एक माँ को सब पता होता है कि किसे किस चीज की जरुरत है।
एक अन्य फिल्म ‘राजा और रंक’ का गाना ‘माँ तू कितनी अच्छी है... भोली-भाली है,
प्यारी है.. है माँ।’ फिल्मी गीतों में माँ को इतनी उपमाये दी गयी है कि शायद ही
किसी को मिल सकें। इस तरह की बहुत सी फिल्में हैं, जिसमें माँ को इतना विशाल रुप
दिया गया है कि जो अधिकारपूर्वक अपने फैसले लेती है और पूरे परिवार का ध्यान रखती
है।
माँ एक ऐसा शब्द है दुनिया में जिसके
साथ चाहे जितनी भी उपमाये और विशेषण जोड़ दो, वो कभी भी अतिश्योक्ति की श्रेणी में
नहीं आयेगा। माँ की महत्ता को दर्शाती हुई एक यहूदी कहावत है कि... ‘खुदा ने पूरा
संसार रचा, वह खुद पूरी दुनिया की देखभाल नहीं कर सकता था, इसलिए उसने माँ की रचना
की।’ इसी तरह एक चीनी कहावत
के अनुसार, ‘पूरी दुनिया में सिर्फ एक ही बच्चा खूबसूरत है और वह हर माँ के पास
है।’ माँ को शब्दों में बता पाना तो संभव नहीं है पर कुछ महान आत्माओं ने अपनी
वाणी से माँ की प्रमुखता को जरुर शब्द दिये हैं। जैसे की हमारे राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी ने कहा कि ‘पुरुष का काम दिन से शाम तक खत्म हो जाता है पर माँ का
काम कभी खत्म नहीं होता।’ वहीं प्रथम अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के शब्दों
में, ‘आज मैं जो भी हूँ और भविष्य में जो भी बनूंगा, उसके लिए मैं अपनी माँ के
प्रति हृदय से कृतज्ञ हूँ।’ जबकि माँ के रुप में नारी शक्ती को पहचानते हुए लाला
लाजपतराय ने कहा कि ‘तुम मुझे कुछ अच्छी माँ लाकर दो, मैं तुम्हें बेहतर देश
दूंगा।’ महान विभूतियों के इन शब्दों और माँ के प्रति के बच्चों की प्रगाढ़ भावों से
एक ही बात सत्य है कि अगर दुनिया में जीवन हैं और
उसे बेहतर बनाने का कार्य कोई कर रहा है तो वह सिर्फ माँ है। बच्चों की प्राथमिक
शिक्षिका की भाँति वह अपने बच्चों को समाज में अच्छाई और बुराई में भेद कर बेहतर
कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
"मातृ दिवस के अवसर पर प्यारी-प्यारी ‘मां’ की याद में..." --आकाश कुमार राय
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें