मंगलवार, 1 मई 2012

परछाई...

परछाईयों की शक्ल भी कोई देख पाया है,
ये तो चिरागों के साथ ही हमसे जुड़ जाता है।

ना चाहता है कुछ भी, ना बोलता कभी,
बस साथ चलता और फिर हममें सिकुड़ जाता है।

कौन कहता है कि इनसे ना नाता हमारा,
देता सहारा जब दुनिया-जहां हमसे बिछुड़ जाता है।

राहों पर तन्हाईयों के जब भी हम चलते,
संग अपने दूर हर सफर तक जाता है।

अपने मन में भी अब ये छंद उभर आया है,
कि मंजिल कहीं हो, हो सफर कैसा भी...
हर राह पर खामोशियों संग तू साथ जाता है।

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