बुधवार, 2 मई 2012

चन्द पंक्तियां...


एक...
थी खुशियों सी हरी-भरी जिन्दगी, तुम जब साथ थे मेरे,
अब डाल से टूटी हुई पत्तियों का सा हाल है अपना।
हो के तुमसे अलग सूखे खरपतवार के ढ़रे हुए हैं,
कि लोग बटोरतें भी हैं हमें तो बस जलाने के लिए।

दर्द जब दर्द की हद के पार जाता है,
तब दर्द भी दर्द को बेजार पाता है।
एक दर्द ही है जो सदा दिल को लुभाता है,
वर्ना यादों के दर्द के सिवा तू कहां सताता है।

रातों को ख्वाब में आने की शिकायत है,
दिन का सुकून चुराने की शिकायत है,
दूर हो कर भी इतने पास हो दिल के,
तुझको भूल न पाने की शिकायत है।

मुकम्मल हो गया वो जो इश्क में तो,
हर बंदे में उसे रब नजर आने लगा,
नहीं फर्क रहा अब उसके लिए,
दर्द और इश्क के दरमियां..
अब तो दर्द में ही उसे इश्क नजर आने लगा।

बहुत रोशन सी रहती है ये बस्ती फिर क्यों,
हर चेहरा यहां अजनबी सा लगता है।
ना इश्क में ठोकर खायी है मैंने,
ना ही ना-उम्मीद हुआ हूँ जिन्दगी से,
फिर क्यों इस शहर की महफिल में भी,
हर पल दिल तन्हा-तन्हा रहता है।

गमों की आंच पर आंसु उबालकर देखो,
बनेगें रंग चटकीले, किसी पर डालकर देखो,
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरुर कम होगी,
किसी के पांव का कांटा निकाल कर देखो।

सुबह की सूरत भी देख ही लेंगे,
अंधेरे के साये अब ढ़लने जो लगे हैं।
इतना गुरुर खुद पर करते नहीं मगर,
दीये की तरह हम अब जलने तो लगे हैं।

दर्द बनकर पिघल रहा हूँ मैं,
गीत ग़जलों में ढ़ल रहा हूँ मैं,
उनकी फितरत बदल नहीं सकती,
अपनी आदत को बदल रहा हूँ मैं।

सारा ज्ञान मिला मोहे जग से,
तुहिं एक पास न होय।
नाम तेरा जब दिल ने जाना,
अब ज्ञान बचा ना कोय।।

लाख उठा करे हर मौज के सीने में भंवर,
पर किनारा है कि बढ़ता ही चला जाता है।
आंधियां आये या मंजिल पर छा जाये अंधेरा,
कांरवा है कि गुजरता ही चला जाता है।

खामोशियां ही महफिल की सोजो-साज होती हैं,
कि मेरी बेजुबानी ही मेरी आवाज होती है।
यहां पे प्यासा रहकर ही मैं जश्ने-जाम बनाता हूँ,
इस महफिल में आकर बिन पिये ही झूम जाता हूँ।

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