मंगलवार, 1 मई 2012

वो ही सपने....


देखे जो खुले दिल से सपने, वो ही रहे बस अपने,
कि अब भरोसे के दम पर लहरा रहा उम्मीदों का आंचल,
पतंगों की रंगों में होके सराबोर, रौशनी सी जो उमड़ाई रहती है,
अब तो दिखने लगे हैं अंबर से ऊंचे वो ही सपने....

सूरज की किरणें भी हमकों थकाती, हर ख्वाब आंखों से दूर भगाती,
पर नशा आखों में कुछ यूं है समाया, मैं ख्वाब पूरा करने ही आया,
नहीं देखता मैं जहां की मुसिबत, बस चलते रहना है मेरी हकीकत,
अब तो लगने लगे हैं सब रस्तें ही अपने....

खुद को ढूंढ़ा है मैंने भरी भीड़ में, भटकता रहा हूं सदा क्षीण में,
अब जाना है अपने हालात को, पहचाना है जंगी सवालात को,
किस घड़ी, किस दिशा में कदम हैं बढ़ाना, है बस मुझे दूर जाना,
अब तो तपने लगे हैं आंखों के वो ही सपने....

मेरी मंजिल का चेहरा नया हो गया है, नया ही अब सिलसिला हो गया है,
हमसफर बन गया है जो हौंसला मेरा, थोड़ी दूर रह गया है ठिकाना मेरा,
अब तो मंजिल की मुझको महक आ रही, जीत के विश्वास की लहर छा रही,
अब तो बहने लगे हैं हकीकत में वो ही सपने... 

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