"नजर मुझसे मिलाकर जब वो
भाग जाते हैं,
हो जाता यकीं कि वो कुछ
तो छुपाते हैं,
जाने कैसे लोग छुपाने औ
चुराने की कला को आजमाते हैं,
दिल में रहता चोर और
होठों पर मासूमियत दिखाते हैं।
मुझे अब नहीं लगता कि
कोई रखना भी चाहेगा,
मैं सच बोल भी दूँ तो
कोई सुनना भी चाहेगा,
चाहिए सबको अपने
हिसाब-ओ-पसंद की बातें,
और मुझे बस आंखों को ही
जुबां में ढ़ालना आयेगा।
लोग देखते मुझको फिर आगे
सरकते हैं,
मैं बाजार की शोभा लिये
बरसों से खड़ा हूँ,
मैं आईना हूँ, जो कभी
महलों में था सजा रहता,
अब जो फेंका गया हूँ तो
टुकड़ो में पड़ा हूँ।
हर हुस्न निहारे हमें और
खोजे सुन्दरता अपनी,
कैसे कहूँ कि तू खुश हो
जाये..
फकत एक आईना हूँ मैं...
जैसा है तू मेरी आंखों
में वहीं नजर आये।
चाहे रख ले बंद दीवारों
में, या फिर रस्ते पे फेंक दों,
रहा जो घर में तो खुद को
संवारोगे...
पड़ा रहा सड़क पर तो...
शायद दुनिया असलियत देख
ले ।।"
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